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अध्याय २ : संसार-प्रवेश


यदि अधकचरा हो तो एक बार काम चल सकता है, परंतु आत्म-दर्शन करानेवाले अधूरे शिक्षकसे हरगिज काम नहीं चलाया जा सकता। गुरुपद तो पूर्ण ज्ञानीको ही दिया जा सकता है। सफलता गुरुकी खोजमें ही है; क्योंकि गुरु शिष्यकी योग्यताके अनुसार ही मिला करते हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक साधनको योग्यता-प्राप्तिके लिए प्रयत्न करनेका पूरा-पूरा अधिकार है। परंतु इस प्रयत्नका फल ईश्वराधीन है।

इसीलिए रायचंदभाईको मैं यद्यपि अपने हृदयका स्वामी न बना सका, तथापि हम आगे चलकर देखेंगे कि उनका सहारा मुझे समय-समयपर कैसा मिलता रहा है। यहां तो इतना ही कहना बस होगा कि मेरे जीवनपर गहरा असर डालने वाले तीन आधुनिक मनुष्य हैं- रायचंदभाईने अपने सजीव संसर्गसे, टॉल्सटॉयने 'स्वर्ग तुम्हारे हृदयमें है' नामक पुस्तक द्वारा तथा रस्किनने 'अनटु दिस लास्ट'- सर्वोदय- नामक पुस्तकसे मुझे चकित कर दिया है। इन प्रसंगोंका वर्णन अपने-अपने स्थानपर किया जायगा।

संसार-प्रवेश

बड़े भाईने तो मुझपर बहुतेरी आशायें बांध रक्खी थीं। उन्हें धनका, कीर्तिका, और ऊंचे पदका लोभ बहुत था। उनका हृदय बादशाहके जैसा था। उदारता उड़ाऊपनतक उन्हें ले जाती। इससे तथा उनके भोलेपनके कारण मित्र बनाते उन्हें देर न लगती। उन मित्रोंके द्वारा उन्होंने मेरे लिए मुकदमे लानेकी तजवीज कर रक्खी थी। उन्होंने यह भी मान लिया था कि मैं खूब रुपया कमाने लगूंगा और इस भरोसेपर उन्होंने घरका खर्च भी खूब बढ़ा लिया था। मेरे लिए वकालतका क्षेत्र तैयार करनेमें भी उन्होंने कसर न उठा रक्खी थी।

इधर जातिका झगड़ा अभी खड़ा ही था। उसमें दो दल हो गये थे। एक दलने मुझे तुरंत जातिमें ले लिया। दूसरा न लेनेके पक्षमें अटल रहा। जातिमें ले लेनेवाले दलको संतुष्ट करने के लिए, राजकोट पहुंचनेके पहले, भाईसाहब मुझे नासिक ले गये। वहां गंगा-स्नान कराया और राजकोटमें पहुंचते ही