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आत्म-कथा : भाग २


जातिभोज दिया गया।

यह बात मुझे रुचिकर न हुई। बड़े भाईका मेरे प्रति अगाध प्रेम था। मेरा खयाल है कि मेरी भक्ति भी वैसा ही थी। इसलिए उनकी इच्छाको आज्ञा मानकर मैं यंत्रकी तरह बिना समझे, उसके अनुकूल होता चला गया। जातिकी समस्या तो इतना करनेसे सुलझ गई।

जिस दलसे मैं पृथक् रहा, उसमें प्रवेश करनेके लिए मैंने कभी कोशिश न की, और न मैं कभी जातिके मुखियापर मनमें क्रुद्ध ही हुआ। उसमें ऐसे लोग भी थे जो मुझे तिरस्कारकी दृष्टिसे देखते थे। उनसे मैं नमता-झुकता रहता। जातिके बहिष्कार-विषयक नियमका पूरा पालन करता। अपने सास-ससुर अथवा बहनके यहां पानीतक न पीता। वे छिपे-छिपे पिलानेको तैयार होते थे। पर जिस बातको चार आदमियोंके सामने नहीं कर सकते, उसे छिपकर करनेको मेरा जी न चाहता।

मेरे इस व्यवहारका परिणाम यह हुआ कि मुझे याद नहीं आता कि जातिवालोंने कभी किसी तरह मुझे सताया हो। यही नहीं, बल्कि मैं आज भी जातिके एक विभागसे नियमके अनुसार बहिष्कृत माना जाता हूं, फिर भी मैंने अपने प्रति उनकी तरफसे मान और उदारताका ही अनुभव किया है। उन्होंने मुझे मेरे काममें मदद भी की है, और मुझसे इस बातकी जरा भी आशा न रक्खी कि मैं जातिके लिहाज से कोई काम करूं। मेरी यह धारणा है कि इस मधुर फलका कारण है केवल मेरा अप्रतिकार। यदि मैंने जातिमें जानेकी कोशिश की होती, अधिक दलबंदी करनेकी चेष्टा की होती, जातिवालोंको छेड़ा और उकसाया हो़ता, वे मेरे खिलाफ उठ खड़े होते और मैं, विलायतसे आते ही, उदासीन और अलिप्त रहनेके बदले, कुचक्रके फंदेमें पड़कर केवल मिथ्यात्वका पोषक बन जाता।

पत्नीके साथ मेरा संबंध अभी जैसा मैं चाहता था वैसी न हुआ। विलायत जानेपर भी अपने द्वेष-दुष्ट स्वभावको मैं न छोड़ सका था। हर बातमें मेरी दोष देखनेकी वृत्ति और वहम जारी रहा। इससे मैं अपने मनोरथोंको पूरा न कर सका। सोचा था कि पत्नीको लिखना-पढ़ना सिखाऊंगा; परंतु मेरी विषयासक्तिने मुझे यह काम बिलकुल न करने दिया और अपनी इस कमीका गुस्सा