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अध्याय २ : संसार-प्रवेश


मैंने पत्नी पर निकाला। एक बार तो यहांतक नौबत आ पहुंची कि मैंने उसे नैहर भेज दिया और बहुत कष्ट देनेके बाद ही फिर साथ रहने देना स्वीकार किया। आगे चलकर मैं देख सका कि यह महज मेरी नादानी ही थी।

बालकोंकी शिक्षा-प्रणालीमें भी मुझे बहुत-कुछ सुधार करने थे। बड़े भाईके लड़के-बच्चे तो थे ही। मैं भी एक बच्चा छोड़ गया था, जो कि अब चार सालका होने आया था। सोचा यह था कि इन बच्चोंको कसरत कराऊंगा, हट्टा-कट्टा बनाऊंगा और अपने साथ रक्खूंगा। भाई इसमें सहमत थे। इसमें मैं कुछ-न-कुछ सफलता प्राप्त कर सका। लड़कोंका समागम मुझे बहुत प्रिय मालूम हुआ। और उनके साथ हंसी-मजाक करनेकी आदत आजतक बाकी रह गई है। तभीसे मेरी यह धारणा हुई है कि मैं लड़कोंके शिक्षकका काम अच्छा कर सकता हूं।

भोजन-पानमें भी सुधार करनेकी आवश्यकता स्पष्ट थी। घरमें चाय-कॉफीको तो स्थान मिल ही चुका था। बड़े भाईने सोचा कि भाईके विलायतसे घर आनेके पहले घरमें विलायतकी कुछ-न-कुछ हवा तो आ ही जानी चाहिए। इस कारण चीनीके बरतन, चाय आदि जो भी चीजें पहले महज दवा-दारूके लिए अथवा नई रोशनीके महमानोंके लिए घरमें रहती थीं अब सबके लिए काम आने लगीं। ऐसे वायु-मंडलमें मैं अपने 'सुधारों'को लेकर आया। अब ओटमीलकी पतली लपसी शुरू हुई। चाय-कॉफीकी जगह कोको आया। पर यह परिवर्तन नाममात्रका हुआ, वास्तवमें तो चाय-कॉफीमें कोको और आकर शामिल हो गया। बूट और मोजोंने अपना अड्डा पहलेसे जमाही रक्खा था। मैंने अब कोट-पतलूनसे घरको पवित्र कर दिया।

इस तरह खर्च बढ़ा। नवीनतायें बढ़ीं। घरपर सफेद हाथी बंधा। पर इतना खर्च आये कहांसे? यदि राजकोटमें आते ही वकालत शुरू करता तो हंसी होनेका डर था, क्योंकि मुझे तो अभी इतना भी ज्ञान न था कि राजकोटमें पास हुए वकीलोंके सामने खड़ा रह सकता- और तिसपर फीस उनसे दस गुनी लेनेका दावा। कौन मवक्किल ऐसा बेवकूफ था, जो मुझे अपना वकील बनाता? अथवा यदि कोई ऐसा मूर्ख मवक्किल मिल भी जाता, तो क्या यह उचित था कि मैं अपने अज्ञानमें गुस्ताखी और धोखेबाजीकी जोड़ मिलाकर अपनेपर संसारका कर्ज बढ़ाता?