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आत्म-कथा : भाग २

मित्रोंकी यह सलाह हुई कि पहले मैं कुछ समय बंबई जाकर हाईकोर्ट में अनुभव प्राप्त करूं और भारतके कानून-कायदोंका अध्ययन करूं। साथ ही मुकदमे मिल जायं तो वकालत भी करता रहूं। मैं बंबई रवाना हुआ।

घर-बार रचा। रसोइया रक्खा। वह तकदीरसे मिला मुझ-जैसा ही। ब्राह्मण था। मैंने उसे नौकरकी तरह नहीं रक्खा था। वह नहाता तो था, पर धोता न था। धोती मैली, जनेऊ मैला, शास्त्राध्ययनकी तो बात ही दूर। मगर और अधिक अच्छा रसोइया लाता कहां से?

"क्यों रविशंकर, रसोई बनाना तो जानते हो, पर संध्या वगैरा भी कुछ याद हैं?"

"संध्या? साहब, संध्या-तर्पण तो है हल और कुदाली है खटकरम। मैं तो ऐसा ही बामन हूं। आप जैसे हैं, तो निबाह लेते हैं, नहीं तो खेती बनी-बनाई है ही।"

मैं सब समझ गया। मुझे रविशंकरका शिक्षक बनना होगा। समय तो बहुत था। आधी रसोई रविशंकर पकाता और आधी मैं। विलायतके अन्नभोजनके प्रयोग यहां शुरू किये। एक स्टोव खरीदा। मैं खुद तो पंक्ति-भेद मानता ही न था। इधर रविशंकरको भी पंक्ति-भेद का आग्रह न था। सो हमारी खासी जोड़ी मिल गई। सिर्फ इतनी शर्त- अथवा मुसीबत कहिए- थी कि रविशंकरने मैले-कुचैलेपनसे नाता तोड़ने और रसोई साफ रखनेकी कसम खा रक्खी थी।

पर मैं चार-पांच माससे अधिक बंबई न रह सकता था। क्योंकि खर्च बढ़ता ही जाता था और आमदनी कुछ न होती थी।

इस तरह जो मैंने संसारमें प्रवेश किया तो अपनी बैरिस्टरी मुझे खलने लगी। आडंबर बहुत, आमदनी कम। जिम्मेदारीका खयाल मुझे भीतर-ही-भीतर कुतरने-नोचने लगा।