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अध्याय ३ : पहला मुकदमा


की। मित्रोंको दिखाई। उन्होंने उसे पास किया, तब मुझे कुछ विश्वास हुआ कि हां अब अर्जियां लिख लेने लायक हो जाऊंगा, और इतना तो हो भी गया था।

पर मेरा काम बढ़ता गया। यों मुफ़्त में अर्जियां लिखते रहनेसे अर्जियां लिखनेका मौका तो मिलता; पर उससे घर-गिरस्तीके खर्चका सवाल कैसे हल हो सकता था?

मैंने सोचा कि मैं शिक्षणका काम तो अवश्य कर सकता हूं। अंग्रेजी मेरी अच्छी थी। इसलिए, यदि किसी स्कूलमें मैट्रिक क्लासको अंग्रेजी पढ़ाने अवसर मिले तो अच्छा हो। कुछ तो आमदनी हुआ करेगी।

मैंने अखबारों में पढ़ा- 'चाहिए, अंग्रेजी शिक्षक। रोज एक घंटे के लिए। वेतन ७५)।' यह एक प्रख्यांत हाईस्कूलका विज्ञापन था। मैंने दरख्वास्त दी। रूबरू मिलनेका हुक्म मिला। मैं बड़ी उमंगसे गया। पर जब आचार्यको मालूम हुआ कि मैं बी॰ ए॰ नहीं हूं तब उन्होंने मुझे दु:खके साथ वापस लौटा दिया।

"पर मैंने लंदनमें मैट्रिक पास किया है। मेरी दूसरी भाषा लैटिन थी।"

"सो तो ठीक, पर हमें ग्रेजुएटकी ही जरूरत है।"

मैं लाचार रहा। मेरे हाथ-पांव ठंडे हो गये। बड़े भाई भी चिंतामें पड़े। हम दोनोंने सोचा कि बंबईमें अधिक समय गंवाना फिजूल है। मुझे राजकोटमें ही सिलसिला जमाना चाहिए। भाई खुद एक वकील थे। अर्जियां लिखनेका कुछ-न-कुछ तो काम दिला ही सकेंगे। फिर राजकोटमें घर भी था। वहां रहनेसे बंबई का सारा खर्च कम हो सकता था। मैंने इस सलाहको पसंद किया। पांच-छः महीने रहकर बंबईसे डेरा-डंडा उठाया।

बंबई रहते हुए मैं रोज हाईकोर्ट जाता। पर यह नहीं कह सकता कि वहां कुछ सीख पाया। इतना ज्ञान न था कि सीख सकता। कितनी ही बार तो मुकदमेमें कुछ समझ ही नहीं पड़ता, न दिल ही लगता। बैठे-बैठे झोंके भी खाया करता। और भी झोंके खानेवाले यहां थे- इससे मेरी शर्मका बोझ हलका हो जाता। आगे चलकर मैं यह समझने लगा कि हाईकोर्टमें बैठे-बैठे नींदके झोंके खाना एक फैशन ही समझ लेना चाहिए। फिर तो शर्मका कारण ही न रह गया।

यदि इस युगमें बंबईमें मुझ जैसे कोई बेकार बैरिस्टर हों तो उनके लिए