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अध्याय : ४ पहला आघात


है; पर मेरे साझीदारको नहीं मिलता। किंतु यदि वही मुकदमा वह किसी दूसरेको दे दे तो उसका हिस्सा अवश्य मिलेगा।' मैं इस दलीलके चक्करमें आ गया और मेरे मनने कहा- 'यदि मुझे बैरिस्टरी करना है, तो फिर ऐसे मुकदमोंमें कमीशन न देनेका आग्रह मुझे न रखना चाहिए।' मै झुक गया। अपने मनको फुसलाया अथवा स्पष्ट शब्दोंमें कहें तो धोखा दिया। पर इसके सिवा दूसरे किसी मामलेमें कमीशन दिया हो, यह मुझे याद नहीं पड़ता।

इस तरह यद्यपि मेरा आर्थिक सिलसिला तो लग गया, परंतु इसी अरसेमें मुझे अपने जीवनमें एक पहली ठेस लगी। अबतक मैंने सिर्फ कानोंसे सुन रक्खा था कि ब्रिटिश अधिकारी कैसे होते हैं। पर अब अपनी आंखो देखनेका अवसर मिला।

पोरबंदरके भूतपूर्व राणा साहबको गद्दी मिलनेके पहले मेरे भाई उनके मंत्री और सलाहकार थे। उस समय उनपर यह तोहमत लगाई थी कि वह राणा साहबको उलटी सलाह देते हैं। तात्कालिक पोलिटिकल एजेंटसे उनकी शिकायत की गई थी और उनका खयाल भाई साहबके प्रति खराब हो रहा था। इन साहबसे मैं विलायतमें मिला था। वहां उनसे मेरी ठीक-ठीक मित्रता हो गई थी। भाई साहबने सोचा कि इस परिचयसे लाभ उठाकर मैं पोलिटिकल एजेंटसे दो बातें कहूं और उनके दिलपर जो-कुछ बुरा असर पैदा हो उसे दूर करनेकी चेष्टा करूं। मुझे यह बात बिलकुल पसंद न हुई। मैंने कहा- "विलायतकी ऐसी-वैसी मुलाकातका फायदा यहां न उठाना चाहिए। यदि भाई साहबने सचमुच ही कोई बुरा काम किया हो, तो फिर सिफारिशसे लाभ ही क्या? यदि न किया हो तो फिर बाकायदा अपना वक्तव्य पेश करना चाहिए अथवा अपनी निर्दोषतापर विश्वास रखकर निर्भय हो रहना चाहिए।" पर भाई साहबको यह बात न पटी। "तुम काठियावाड़से परिचित नहीं हो। जिंदगीकी खबर तुम्हें अब पड़ेगी; यहां जरिया और मेल-मुलाकातसे सब काम होता है। तुम्हारे जैसा भाई हो और तुम्हारे मुलाकाती हाकिमको थोड़ी-सी सिफारिश करनेका जब वक्त आवे तब तुम इस तरह पिंड छुड़ा लो, यह उचित नहीं।"

भाईकी मुरव्वत मैं न तोड़ सका। अपनी इच्छाके खिलाफ मैं गया। मुझे उस हाकिमके पास जानेका कोई अधिकार न था। मैं जानता था कि जानेमें