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आत्म-कथा : भाग २


मेरा आत्माभिमान जाता है। मैंने मिलनेका समय मांगा। वह मिला और मैं गया। मैंने पुरानी पहचान निकाली, परंतु मैंने तुरंत देखा कि विलायत और काठियावाड़में भेद था। हुकूमतकी कुर्सीपर डटे हुए साहब और विलायतमें छुट्टीपर गये हुए साहबमें भेद था। पोलिटिकल एजेंटको मुलाकात तो याद आई, पर साथ ही अधिक बेरुख भी हुए। उनकी बेरुखाईमें मैंने देखा, उनकी आँखोंमें मैंने पढ़ा- 'उस परिचयसे लाभ उठाने तो तुम यहां नहीं आये हो?' यह जानते समझते हुए भी मैंने अपना सुर छेड़ा। साहब अधीर हुए- "तुम्हारे भाई कुचक्री हैं। मैं तुमसे ज्यादा बात नहीं सुनना चाहता। मुझे समय नहीं है। तुम्हारे भाईको कुछ कहना हो तो बाकायदा अर्जी पेश करें।" यह उत्तर बस था; परंतु गरज बावली होती है। मैं अपनी बात कहता ही जा रहा था। साहब उठे। बोले– "अब तुमको चला जाना चाहिए।"

मैंने कहा- "पर, मेरी बात तो पूरी सुन लीजिए।" साहब लाल-पीले हुए- "चपरासी, इसको दरवाजेके बाहर करदो।"

'हुजूर' कहकर चपरासी दौड़ आया। मेरा चर्खा अभीतक चल ही रहा था। चपरासीने मेरा हाथ पकड़ा और दरवाजेके बाहर कर दिया।

साहब चले गये, चपरासी भी चला गया। मैं भी चला- झुंझलाया, खिसियाया। मैंने साहबको चिट्ठी लिखी- "आपने मेरा अपमान किया है, चपरासीसे मुझपर हमला कराया है। मुझसे माफी मांगो, नहीं तो बाकायदा मानहानिका दावा करूंगा।" चिट्ठी भेज दी। थोड़ी ही देरमें साहबका सवार जवाब ले आया।

"तुमने मेरे साथ असभ्यताका बर्ताव किया। तुमसे कह दिया था कि जाओ, फिर भी तुम न गये। तब मैंने जरूर चपरासीको कहा कि इन्हें दरवाजेके बाहर कर दो। और चपरासीके ऐसा कहनेपर भी तुम बाहर नहीं गये। तब उसने हाथ पकड़कर तुम्हें दफ्तरसे बाहर कर दिया। इसके लिए तुमको जो-कुछ करना हो, शौक से करो।" जवाबका भाव यह था।

इस जवाबको जेबमें रख, अपना-सा मुंह ले, मैं घर आया। भाईसे सारा हाल कहा। उन्हें दुःख हुआ। पर वह मेरी सांत्वना क्या कर सकते थे? वकील मित्रोंसे सलाह ली- क्योंकि खुद मैं दावा दायर करना कहां जानता था?