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आत्म-कथा : भाग २


नालिश करनेकी धमकी देकर नालिश न करना और उसे कुछ भी जवाब न देना मुझे अच्छा न लगा।

इस बीच काठियावाड़की अंदरूनी खटपटका भी मुझे कुछ अनुभव हुआ। काठियावाड़ अनेक छोटे-छोटे राज्योंका प्रदेश है। वहां राजकाजी लोगोंकी बहुतायत होना स्वाभाविक था। राज्योंमें परस्पर गहरे षड्यंत्र; पद-प्रतिष्ठा पानेके लिए षड्यंत्र; राजा कच्चे कानके और पराधीन; साहबोंके चपरासियोंकी खुशामद; सरिश्तेदारको डेढ़ साहब समझिए- क्योंकि सरिश्तेदार साहबकी आंख, साहबके कान, और उसका दुभाषिया सब कुछ। सरिश्तेदार जो बता दे वही कायदा। सरिश्तेदार की आमदनी साहबकी आमदनीसे ज्यादा मानी जाती थी। संभव है कि इसमें कुछ अत्युक्ति हो। पर यह बात निर्विवाद है कि सरिश्तेदारके थोड़े वेतनके मुकाबलेमें उसका खर्च ज्यादा रहता था।

यह वायुमंडल मुझे जहरके समान प्रतीत हुआ। दिन-रात मेरे मनमें यह विचार रहने लगा कि यहां अपनी स्वतंत्रताकी रक्षा किस तरह कर सकूंगा?

होते-होते मैं उदासीन रहने लगा। भाईने मेरा यह भाव देखा। यह विचार आया कि कहीं कोई नौकरी मिल जाय तो इन षड्यंत्रोंसे पिंड छूट सकता है। परंतु बिना षड्यंत्रोंके न्यायाधीश अथवा दीवानका पद कहांसे मिल सकता था? और वकालत करनेके रास्तेमें साहबके साथ वाला झगड़ा खड़ा हुआ था।

पोरबंदरमें राणा साहबको अख्तियार न थे, उसके लिए कुछ अधिकार प्राप्त करनेकी तजवीज चल रही थी। मेर लोगोंसे ज्यादा लगान लिया जाता था। उसके संबंधमें भी मुझे वहांके एडमिनिस्ट्रेटर- मुख्य राज्याधिकारी- से मिलना था। मैंने देखा कि एडमिनिस्ट्रेटरके देशी होते हुए भी उनका रौबदाब साहबसे भी ज्यादा था। वह थे तो योग्य; परंतु उनकी योग्यताका लाभ प्रजाजनको बहुत न मिलता था। अंतमें राणा साहबको तो थोड़े अधिकार मिले। परंतु मेर लोगोंके हाथ कुछ न आया। मेरा खयाल है कि उनकी तो बात भी पूरी न सुनी गई।

इसलिए यहां भी अपेक्षाकृत निराश हुआ। मुझे लगा कि इन्साफ नहीं हुआ। इन्साफ पानेके लिए मेरे पास कोई साधन न था। बहुत हुआ तो बड़े साहबके यहां अपील करदी। वह हुक्म लगा देता- 'हम इस मामलेमें दखल