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आत्म-कथा : भाग २


पास एक मछवा था । उसे १०)देकर एक मित्रने किराये किया। मछवे ने मुझे नावमेंसे उठा लिया। जहाजकी सीढ़ी ऊपर चढ़ चुकी थी। रस्सीके बल मैं ऊपर खींचा गया और जहाज चलने लगा। बेचारे दूसरे यात्री रह गये। कप्तानकी उस चेतावनीका मतलब अब मैं समझा।

लामूसे मोंबासा और वहांसे जंजीबार पहुंचे। जंजीबारमें बहुत ठहरना था- ८ या १० दिन। यहांसे नये जहाजमें बैठना था।

कप्तानके प्रेमकी सीमा न थी। इस प्रेमने मेरे लिए विपरीत रूप धारण किया। उसने मुझे अपने साथ सैर करनेके लिए बुलाया। उसका एक अंग्रेज मित्र भी साथ था। हम तीनों कप्तानके मछवेमें उतरे। इस सैरका मर्म मैं बिलकुल न जानता था। कप्तानको क्या खबर थी कि ऐसी बातोंमें मैं बिल्कुल अनजान होऊंगा। हम तो हवशी औरतोंके मुहल्लोंमें जा पहुंचे। एक दलाल हमें वहां ले गया। तीनों एक-एक कमरेमें दाखिल हुए। पर मैं तो शर्मका मारा कमरेमें घुसा बैठा ही रहा। उस बेचारी बाईके मनमें क्या-क्या विचार आये होंगे, यह तो वही जानती होगी। थोड़ी देरमें कप्तानने आवाज लगाई। मैं तो जैसा अंदर घुसा था, वैसा ही वापस बाहर आ गया। यह देखकर कप्तान मेरा भोलापन समझ गया। शुरूमें तो मुझे बड़ी शर्म मालूम हुई; परंतु इस काम को तो मैं किसी तरह पसंद नहीं कर सकता था, इससे शर्म चली गई और मैंने ईश्वरका उपकार माना कि इस बहनको देखकर मेरे मनमें किसी प्रकारका विकारतक उत्पन्न न हुआ। मुझे अपनी इस कमजोरीपर बड़ी ग्लानि हुई कि मैं कमरेमें प्रवेश करनेसे इन्कार करनेका साहस क्यों न कर सका।

मेरे जीवनमें यह इस प्रकार की तीसरी परीक्षा थी। कितने ही नवयुवक शुरूआतमें निर्दोष होते हुए भी झूठी शर्मसे बुराईमें लिप्त हो जाते होंगे। मेरा बचाव मेरे पुरुषार्थके बदौलत नहीं हुआ था। यदि मैंने कमरेमें जानेसे साफ इन्कार कर दिया होता तो पुरुषार्थ समझा जा सकता था। सो मेरे इस बचावके लिए तो एकमात्र ईश्वरका ही उपकार मानना चाहिए। इस घटनासे ईश्वरपर मेरी आस्था दृढ़ हुई और झूठी शर्म छोड़नेका साहस भी कुछ आया।

जंजीबारमें एक सप्ताह रहना था। इसलिए एक मकान किराये का लेकर मैं शहरमें रहा। खूब घूम-फिरकर शहरको देखा। जंजीबारकी हरियाली-