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आत्म-कथा : भाग २


जाड़ा पड़ता है। मेरित्सबर्ग ऊंचाईपर था—इससे खूब जाड़ा लगा। मेरा ओवरकोट मेरे सामानमें रह गया था। सामान मांगनेकी हिम्मत न पड़ी कि कहीं फिर बेइज्जती न हो। जाड़ेमें सिकुड़ता और ठिठुरता रहा। कमरेमें रोशनी न थी। आधी रातके समय एक मुसाफिर आया। ऐसा जान पड़ा मानो वह कुछ बात करना चाहता हो; पर मेरे मनकी हालत ऐसी न थी कि बातें करता।

मैंने सोचा, मेरा कर्तव्य क्या है। या तो मुझे अपने हकोंके लिए लड़ना चाहिए, या वापस लौट जाना चाहिए। अथवा जो बेइज्जती हो रही है, उसे बर्दाश्त करके प्रिटोरिया पहुंचूं और मुकदमेका काम खतम करके देश चला जाऊं। मुकदमेको अधूरा छोड़कर भाग जाना तो कायरता होगी। मुझपर जो-कुछ बीत रही है वह तो ऊपरी चोट है—वह तो भीतरके महारोगका एक बाह्य लक्षण है। यह महारोग है रंग-द्वेष। यदि इस गहरी बीमारीको उखाड़ फेंकनेका सार्मथ्य हो तो उसका उपयोग करना चाहिए। उसके लिए जो-कुछ कष्ट और दुःख सहन करना पड़े, सहना चाहिए। इन अन्यायोंका विरोध उसी हदतक करना चाहिए, जिस हदतक उनका संबंध रंग-द्वेष दूर करनेसे हो।

ऐसा संकल्प करके मैंने जिस तरह हो दूसरी गाड़ीसे आगे जानेका निश्चय किया।

सुबह मैंने जनरल मैनेजरको तार-द्वारा एक लंबी शिकायत लिख भेजी। दादा अब्दुल्लाको भी समाचार भेजे। अब्दुल्ला सेठ तुरंत जनरल मैनेजरसे मिले। जनरल मैनेजरने अपने आदमियोंका पक्ष तो लिया; पर कहा कि मैंने स्टेशन मास्टरको लिख दिया है कि गांधीको बिना खरखशा अपने मुकामपर पहुंचा दो। अब्दुल्ला सेठने मेरित्सबर्गके हिंदू व्यापारियोंको भी मुझसे मिलने तथा मेरा प्रबंध करनेके लिए तार दिये तथा दूसरे स्टेशनोंपर भी ऐसे तार दे दिये। इससे व्यापारी लोग स्टेशनपर मुझसे मिलने आये। उन्होंने अपनेपर होनेवाले अन्यायोंका जिक्र मुझसे किया और कहा कि आपपर जो-कुछ बीता है वह कोई नई बात नहीं। पहले-दूसरे दरजेमें जो हिंदुस्तानी सफर करते हैं उन्हें क्या कर्मचारी और क्या मुसाफिर दोनों सताते हैं। सारा दिन इन्हीं बातोंके सुननेमें गया। रात हुई, गाड़ी आयी। मेरे लिए जगह तैयार थी। डरबनमें सोनेके लिए जिस टिकटको लेनेसे इन्कार किया था, वही मेरित्सबर्ग में लिया। ट्रेन मुझे चार्ल्सटाउन ले चली।