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आत्म-कथा : भाग २


ट्रांसवालमें नेटालसे ज्यादा कष्ट है। यहां तो हमारे लोगोंको दूसरे और पहले दरजेके टिकट बिलकुल देते ही नहीं।"

मैंने कहा—"आप लोगोंने इसके लिए पूरी कोशिश न की होगी।"

अब्दुलगनी सेठ बोले—"हमने लिखा-पढ़ी तो शुरू की है; पर हमारे बहुतेरे लोग तो पहले-दूसरे दरजेमें बैठनेकी इच्छा भी क्यों करने लगे?"

मैंने रेलवेके कायदे-कानून मंगाकर देखे। उनमें कुछ गुंजाइश दिखाई दी। ट्रांसवालके पुराने कानून-कायदे बारीकीके साथ नहीं बनाये जाते थे। फिर रेलवेके कानूनोंका तो पूछना ही क्या?

मैंने सेठसे कहा—"मैं तो फर्स्ट क्लासमें ही जाऊंगा। और यदि इस तरह न जा सका तो फिर प्रिटोरिया यहांसे सैंतीस ही मील तो है। घोड़ागाड़ी करके चला जाऊंगा।"

अब्दुलगनी सेठने इस बात की ओर मेरा ध्यान खींचा कि उसमें कितना तो खर्च लगेगा और कितना समय जायगा। पर अंतको उन्होंने मेरी बात मान ली और स्टेशन-मास्टरको चिट्ठी लिखी। पत्रमें उन्होंने लिखा कि मैं बैरिस्टर हूं; हमेशा पहले दरजेमें सफर करता हूं। तुरंत प्रिटोरिया पहुंचनेकी ओर उनका ध्यान दिलाया और उन्हें लिखा कि पत्रके उत्तरकी राह देखनेके लिए समय न रह जायगा, अतएव मैं खुद ही स्टेशनपर इसका जवाब लेने आऊंगा और पहले दरजेका टिकट मिलनेकी आशा रक्खूंगा। ऐसी चिट्ठी लिखानेमें मेरी एक मसलहत थी। मैंने सोचा कि लिखित उत्तर स्टेशन-मास्टर 'ना' ही दे देगा। फिर उसको 'कुली' बैरिस्टरके रहन-सहनकी पूरी कल्पना न हो सकेगी। इसलिए यदि मैं सोलहों आना अंग्रेजी वेश-भूषामें उसके सामने जाकर खड़ा हो जाऊंगा और उससे बात करूंगा तो वह समझ जाएगा और मुझे टिकट दे देगा। इसलिए मैं फ्राक कोट, नेकटाई इत्यादि डाटकर स्टेशन पहुंचा। स्टेशन मास्टर के सामने गिन्नी निकालकर रक्खी और पहले दरजेका टिकट मांगा।

उसने कहा—"आपने ही वह चिट्ठी लिखी हैं?"

मैंने कहा—"जी हां। मैं बड़ा खुश होऊंगा, यदि आप मुझे टिकट दे देंगे। मुझे आज ही प्रिटोरिया पहुंच जाना चाहिए।"

स्टेशन मास्टर हंसा। उसे दया आई। बोला—"मैं ट्रांसवालर नहीं