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अध्याय १० : प्रिटोरियामें पहला दिन


हूं, हालैंडर हूं। आपके मनोभावको समझ सकता हूं। आपके साथ मेरी सहानुभूति है। मैं आपको टिकट दे देना चाहता हूं। पर एक शर्त है—यदि रास्तेमें आपको गार्ड उतार दे और तीसरे दरजेमें बिठा दे तो आप मुझे दिक न करें, अर्थात् रेलवेकंपनीपर दावा न करें। मैं चाहता हूं कि आपकी यात्रा निर्विघ्न समाप्त हो। मैं देख रहा हूं कि आप एक भले आदमी हैं।" यह कहकर उसने टिकट दे दिया। मैंने उसे धन्यवाद दिया और अपनी तरफसे निश्चिंत किया। अब्दुलगनी सेठ पहुंचाने आए थे। इस कौतुकको देखकर उन्हें हर्ष हुआ, आश्चर्य भी हुआ; पर मुझे चेताया—"प्रिटोरिया राजी-खुशी पहुंच गये तो समझना गंगा-पार हुए। मुझे डर है कि गार्ड आपको पहले दरजेमें आरामसे न बैठने देगा; और उसने बैठने दिया तो मुसाफिर न बैठने देंगे।"

मैं पहले दरजेके डिब्बेमें जा बैठा। ट्रेन चली। जर्मिस्टन पहुंचनेपर गार्ड टिकट देखनेके लिए निकला। मुझे देखते ही झल्ला उठा। अंगुलीसे इशारा करके कहा—"तीसरे दरजेमें जा बैठ।" मैंने अपना पहले दरजेका टिकट दिखाया। उसने कहा—"इसकी परवा नहीं, चला जा तीसरे दरजेमें।"

इस डिब्बेमें सिर्फ एक अंग्रेज यात्री था। उसने उस गार्डको डांटा—"तुम इनको क्यों सताते हो? देखते नहीं, इनके पास पहले दरजेका टिकट हैं? मुझे इनके बैठनेसे जरा भी कष्ट नहीं।" यह कहकर उसने मेरी ओर देखा और कहा—"आप तो आरामसे बैठे रहिए।"

गार्ड गुनगुनाया—'तुझे कुलीके पास बैठना हो तो बैठ, मेरा क्या बिगड़ता हैं।' और चलता बना।

रातको कोई ८ बजे ट्रेन प्रिटोरिया पहुंची।

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प्रिटोरियामें पहला दिन

मैंने आशा रक्खी थी कि प्रिटोरिया स्टेशनपर दादा अब्दुल्लाके वकीलकी तरफसे कोई-न-कोई आदमी मुझे मिलेगा। मैं यह तो जानता था कि कोई हिंदुस्तानी तो मुझे लिवाने आवेगा नहीं; क्योंकि किसी भी भारतीयके यहां न ठहरनेका