वहीं भोजन किया। मकान-मालकिन भलीमानुस थी। उसने मेरे लिए अन्न-भोजन तैयार किया था। इस कुटुंबके साथ हिलमिल जानेमें मुझे समय न लगा। खा-पीकर मैं दादा अब्दुल्लाके उन मित्रसे मिलने गया, जिनके नाम उन्होंने प्रत्र दिया था। उनसे परिचय किया। उनसे हिंदुस्तानियोंके कष्टोंका और हाल मालूम हुआ। उन्होंने मुझे अपने यहां रहनेका आग्रह किया। मैंने उनको धन्यवाद दिया और अपने लिए जो प्रबंध हो गया था उसका हाल सुनाया। उन्होंने जोर देकर मुझसे कहा कि जिस किसी बातकी जरूरत हो, मुझे खबर कीजिएगा।
शाम हुई। खाना खाया और अपने कमरेमें जाकर विचारके भंवरमें जा गिरा। मैंने देखा कि अभी हाल तो मेरे लिए कोई काम नहीं हैं। अब्दुल्ला सेठको खबर की। मि॰ बेकर जो मित्रता बढ़ा रहे हैं इसका क्या अर्थ है? इनके धर्म-बंधुओंके द्वारा मुझे कितना ज्ञान प्राप्त होगा? ईसाई-धर्मका अध्ययन मैं किस हद तक करूं? हिंदू-धर्मका साहित्य कहांसे प्राप्त करूं? उसे जाने बिना ईसाई-धर्मका स्वरूप मैं कैसे समझ सकूंगा? मैं एक ही निर्णय कर पाया। जो चीज मेरे सामने आ जाय उसका अध्ययन मैं निष्पक्ष रहकर करूं और बेकरके समुदायको जिस समय ईश्वर जो बुद्धि दे वह उत्तर दे दिया करूं। जबतक मैं अपने धर्मका ज्ञान पूरा-पूरा न कर सकें तबतक मुझे दूसरे धर्मको अंगीकार करनेका विचार न करना चाहिए। यह विचार करते-करते मुझे नींद आ गई।
११
दूसरे दिन एक बजे मैं मि॰ बेकरके प्रार्थना-समाजमें गया। वहां कुमारी हैरिस, कुमारी गेव, मि॰ कोट्स आदिसे परिचय हुआ। सबने घुटने टेककर प्रार्थना की। मैंने भी उनका अनुकरण किया। प्रार्थनामें जिसका जो मन चाहता, ईश्वरसे मांगता। दिन शांतिके साथ बीते, ईश्वर हमारे हृदयके द्वार खोलो, इत्यादि प्रार्थना होती। उस दिन मेरे लिए भी प्रार्थना की गई। 'हमारे साथ जो यह नया भाई आया है, उसे तू राह दिखाना। तूने जो शांति हमें प्रदान की है। वह इसे भी देना। जिस ईसामसीहने हमें मुक्त किया हैं, वह इसे भी मुक्त करे।