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आत्म-कथा : भाग २


कब मिल सकती है? तुमको शांति तो मिल ही नहीं सकती। हम पापी हैं, यह तो आप कबूल ही करते हैं। अब देखो हमारे धर्म-मन्तव्यकी परिपूर्णता। वह कहता है मनुष्यका प्रयत्न व्यर्थ है। फिर भी उसे मुक्तिकी तो जरूरत है ही। ऐसी दशामें पापका बोझ उसके सिरसे उतरेगा किस तरह? इसकी तरकीब यह कि हम उससे ईसामसीह पर ढो देते हैं; क्योंकि वह तो ईश्वरका एकमात्र निष्पाप पुत्र है। उसका वरदान है कि जो मुझे मानता है वह सब पापोंसे छूट जाता हैं। ईश्वरकी यह अगाध उदारता है। ईसामसीहकी इस मुक्ति-योजनाको हमने स्वीकार किया है, इसलिए हमारे पाप हमें नहीं लगते। पाप तो मनुष्यसे होते ही हैं। इस जगत् में बिना पापके कोई कैसे रह सकता है? इसलिए ईसामसीहने सारे संसारके पापोंका प्रायश्चित्त एकबारगी कर लिया। उसके इस बलिदानपर जिसकी श्रद्धा हो वही शांति प्राप्त कर सकता है। कहां तुम्हारी शांति और कहां हमारी शांति।"

यह दलील मुझे बिलकुल न जंची। मैंने नम्रता-पूर्वक उत्तर दिया—"यदि सर्वमान्य ईसाई-धर्म यही हो, जैसाकि आपने बयान किया है, तो इसमें मेरा काम नहीं चल सकता। मैं पापके परिणामसे मुक्ति नहीं चाहता, मैं तो पाप-प्रवृत्तिसे, पाप-कर्मसे मुक्ति चाहता हूं। जबतक वह न मिलेगी, मेरी अशांति मुझे प्रिय लगेगी।"

प्लीमथ ब्रदरने उत्तर दिया—"मैं तुमको निश्चयसे कहता हूं कि तुम्हारा यह प्रयत्न व्यर्थ है। मेरी बातपर फिरसे विचार करना।"

और इन महाशयने जैसा कहा था वैसा ही कर भी दिखाया—जान बूझकर बुरा काम कर दिखाया।

परंतु तमाम ईसाइयोंकी मान्यता ऐसी नहीं होती, यह बात तो मैं इनसे परिचय होनेके पहले भी जान चुका था। कोट्स खुद पाप-भीरु थे। उनका हृदय निर्मल था, वह हृदय-शुद्धिकी संभावनापर विश्वास रखते थे। वे बहनें भी इसी विचारकी थीं। जो-जो पुस्तकें मेरे हाथ आईं उनमें कितनी ही भक्तिपूर्ण थीं, इसलिए प्लीमथ ब्रदर्सके परिचयसे कोट्सको जो चिंता हुई थी उसे मैने दूर कर दिया और उन्हें विश्वास दिलाया कि प्लीमथ ब्रदरकी अनुचित धारणा के आधारपर मैं सारे ईसाईधर्मके खिलाफ अपनी राय न बना लूंगा। मेरी कठिनाइयां