बढ़ गई है; क्योंकि मुट्ठी भर हिंदुस्तानियोंके रहन-सहनसे लोग करोड़ों भारतवासियों का अंदाजा लगाते हैं।"
मैंने देख लिया था कि अंग्रेजोंके रहन-सहनके मुकाबलेमें हिंदुस्तानी गंदे रहते हैं और उनको मैंने यह त्रुटि दिखाई।
हिंदू , मुसलमान, पारसी, ईसाई अथवा गुजराती, मदरासी, पंजाबी, सिंधी, कच्छी, सूरती इत्यादि भेदोंको भुला देने पर जोर दिया। और अंतको यह सूचित किया कि एक मंडलकी स्थापना करके भारतीयोंके कष्टों और दुःखों का इलाज अधिकारियोंसे मिलकर, प्रार्थना-पत्र आदिके द्वारा, करना चाहिए। और अपनी तरफसे यह कहा कि इसके लिए मुझे जितना समय मिल सकेगा बिना वेतन देता रहूंगा।
मैंने देखा कि सभापर इसका अच्छा असर हुआ।
चर्चा हुई। कितनोंने ही कहा कि हम हकीकतें ला-लाकर देंगे। मुझे हिम्मत आई। मैंने देखा कि सभामें अंग्रेजी जाननेवाले कम थे। मुझे लगा कि ऐसे प्रदेशमें यदि अंग्रेजीका ज्ञान अधिक हो तो अच्छा, इसलिए मैंने कहा कि जिन्हें फुर्सत हो उन्हें अंग्रेजी सीख लेनी चाहिए। बड़ी उम्रमें भी चाहें तो पढ़ सकते हैं, यह कहकर उन लोगोंकी मिसालें दीं जिन्होंने प्रौढ़ावस्थामें पढ़ा था। कहाकि यदि कुछ लोग या एक वर्ग जितने लोग पढ़ना चाहें तो मैं पढ़ाने को तैयार हूं। वर्ग तो निकला परंतु तीन शख्स अपनी सुविधासे व उनके घर जाकर पढ़ाऊं तो पढ़नेके लिए तैयार हुए। इनमें दो मुसलमान थे, एक नाई था और एक था कारकुन। एक हिंदू छोटा-सा दुकानदार था। मैं सबकी सुविधाके अनुकूल हुआ। अपनी पढ़ानेकी योग्यता और क्षमताके संबंधमें तो मुझे अविश्वास था ही नहीं। मेरे शिष्य भले ही थक गये हों; पर मैं न थका। कभी उनके घर जाता तो उन्हें फुरसत नहीं रहती। मैंने धीरज न छोड़ा। किसीको अंग्रेजीका पंडित तो होना ही न था; परंतु दो विद्यार्थियोंने कोई आठ मासमें अच्छी प्रगति कर ली। दोनोंने बहीखातेका तथा चिट्ठीपत्री लिखनेका ज्ञान प्राप्त कर लिया। नाईको तो इतना ही पढ़ना था कि वह अपने ग्राहकोंसे बातचीत कर सके। दो आदमी इस पढ़ाईकी बदौलत ठीक कमानेका भी सामर्थ्य प्राप्त कर सके।
सभाके परिणामसे मुझे संतोष हुआ। ऐसी सभा हर मास अथवा हर