पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/१५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४०
आत्म-कथा : २

मृत्यु मैं कोई गुह्ये चमत्कार-प्रभाव था, इस बात को मेंरा हृदय ने मान सकता था । ईसाइयों के पवित्र जीवन में से मुझे कोई ऐसी बात न मिली जो दूसरे धर्मवालोंके के जीवन में मिलती थी। उनकी तरह दुसरे धर्मवालोंके के जीवन में भी परिवर्तन होता हुआ मैंने देखा था । सिद्धांत की दृष्टि से ईसाई-सिद्धांतों में मुझे अलौकिकता न दिखाई दी । त्याग की दृष्टि से हिंदू-धर्मवालोंका का त्याग मुझे बढ़कर मालूम हुआ । अतः ईसाई-धर्म को मैं संपूर्ण अथवा सर्वोपरि धर्म न मान सका ।

अपना यह हृदय-मंथन मैंने, समय पाकर, ईसाई मित्रों के सामने रखा। उसका जवाब वे संतोषजनक न दे सके ।

परंतु एक ओर जहां मैं ईसाई-धर्म को ग्रहण न कर सका वहीं दूसरी ओर हिंदू-धर्म की संपूर्णता अथवा सर्वोपरिता को भी निश्चय मैं इस समय तक न कर सका। हिंदू-धर्म की त्रुटियां मेरी आंखों के सामने घूमा करतीं । अस्पृश्यता यदि हिंदू-धर्म का अंग हो तो वह मुझे सड़ा हुआ अथवा बढ़ा हुआ मालूम हुआ है। अनेक संप्रदायों और जात-पात का अस्तित्व मेरी समझ में न आया । वेद ही ईश्वर प्रणीत है, इसका क्या अर्थ ? वेद यदि ईश्वर-प्रणीत है, तो फिर कुरान और बाइबिल क्यों नहीं ?

जिस प्रकार ईसाई मित्र मुझ पर असर डालने का उद्योग कर रहे थे, उसी प्रकार मुसलमान मित्र भी कोशिश कर रहे थे । अब्दुल्ला सेठ मुझे इस्लाम का अध्ययन करने के लिए ललचा रहे थे । उसकी खूबियों की चर्चा तो वह हमेशा करते रहते ।

मैंने अपनी दिक्कतें रायचंदभाई को लिखीं। हिंदुस्तान में दूसरे धर्मशास्त्रियों से भी पत्र-व्यवहार किया। उनके उत्तर भी आये; परंतु रायचंदभाई के पुत्र ने मुझे कुछ शांति दी। उन्होंने लिखा कि धीरज रक्खो, और हिंदू-धर्म का गहरा अध्ययन करो । उनके एक वाक्य का भावार्थ यह था--- : हिंदू-धर्म में जो सूक्ष्म और गूढ़ विचार हैं, जो अत्मा का निरीक्षण है, दया है, वह दूसरे धर्म में नहीं हैं निष्पक्ष होकर विचार करते हुए मैं इस परिणाम पर पहुंचा हूँ ।'

मैंने सेल-कृत कुरान खरीदी और पढ़ना शुरू किया। दूसरी इस्लामी पुस्तके भी मंगाई । विलायत के ईसाई मित्रों से लिखा-पढ़ी की' । उनमें से एक एडवर्ड मेटलैंड से जान-पहचान कराई । उनके साथ चिट्ठी-पत्री हुई। उन्होंने