पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४३
अध्याय १६ : ‘को जाने कलकी?


देशी भाषा में रूढ़ हो गये थे । ‘मताधिकार' कहने से कोई नहीं समझता) का थोड़ा इतिहास सुन लीजिए। इस मामले में हमारी समझ काम नहीं देती; पर हमारे बड़े वकील मि० ऐस्कंब को तो आप जानते ही हैं, वह जबरदस्त लड़वैये हैं । उनकी तथा वहां के फुरजा के इंजीनियर की खूब चख-चख चला करती है । मि० ऐस्कंब के धारा-सभा में जाने में यह लड़ाई बाधक हो रही थी । इसलिए उन्होंने हमें हमारी स्थिति का ज्ञान कराया । उनके कहने से हमने अपने नाम मताधिकार-पत्र में दर्ज करा लिये और अपने तमाम मत मि० ऐस्बंक को दिये । अब आप सभझ जायंगे कि हम इस मताधिकार की कीमत आपके इतनी क्यों नहीं आंकते हैं; पर आपकी बात अब हमारी समझ में आ रही है--अच्छा तो अब आप क्या सलाह देते हैं ?”

यह बात दूसरे मेहमान लोग गौर से सुन रहे थे । इनमें से एक ने कहा-- “ मैं आपसे सच्ची बात कह दूँ? यदि आप इस जहाज से न जायें और एकाध महीना यहां रह जायें, तो आप जिस तरह बतायें हम लड़ने को तैयार हैं ।"

एक दूसरे ने कहा--“यह बात ठीक है ! अब्दुल्ला सेठ, आप गांधीजी को रोक लीजिए ।"

अब्दुल्ला सेठ थे उस्ताद आदमी । वह बोले--“अब इन्हें रोकने का अख्तियार मुझे नहीं । अथवा जितना मुझे है उतना ही आपको भी हैं; पर आपकी बात है ठीक । हम सब मिलकर इन्हें रोक लें, पर यह तो बैरिस्टर हैं । इनकी फीस का क्या होगा ?”

फीस की बात से मुझे दुख हुआ ! मैं बीच में ही बोला--

“अब्दुल्ला सेठ, इसमें फीस का क्या सवाल? सार्वजनिक सेवा में फीस किस बात की ? यदि मैं रहा तो एक सेवक की हैसियत से रह सकंता हूं । इन सब भाइयों से मेरा पूरा परिचय नहीं है; पर यदि आप यह समझते हों कि ये सब लोग मेहनत करेंगे तो मैं एक महीना ठहर जाने के लिए तैयार हूं; पर एक बात है । मुझे तो आपको कुछ देना-वेना नहीं पड़ेगा; पर ऐसे काम बिना रुपये-पैसे के नहीं चल सकते ! हमें तार वगैरा देने पड़ेंगे--कुछ छापना भी पड़ेगा । इधर-उधर जाना-आना पड़ेगा, उसका किराया आदि भी लगेगा । मौका पड़ने पर यहां के वकीलों की भी सलाह लेनी पड़ेगी । मैं यहां के सब कानून-कायदों को अच्छी तरह