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अध्याय १७ : बस गया


मानेकजी, जोशी, नरसीराम इत्यादि दादा अब्दुल्ला की तथा दूसरी बड़ी दूकानों में कर्मचारी थे। पहले-पहल सार्वजनिक काम में पड़ते हुए इन लोगों को जरा अटपटा मालूम हुआ । इस तरह सार्वजनिक काम में निमंत्रित तथा सम्मिलित होने का उन्हें यह पहला अनुभव था । सिर आई विपत्ति के मुकाबले के लिए नीच-ऊंच, छोटे-बड़े, मालिक-नौकर, हिंदू-मुसलमान, पारसी, ईसाई, गुजराती, मदरासी, सिंधी इत्यादि भेद-भाव जाते रहे । उस समय सब भारत की संतान और सेवक थे ।

फ्रैंचाइज़ बिलका दूसरा वाचन हो चुका था अथवा होने वाला था । उस समय धारा-सभा में जो भाषण हुए, उनमें यह बात कही गई कि कानून इतना सख्त था, फिर भी हिंदुस्तानियों की और से उनका कुछ विरोध न हुआ। यह भारतीय प्रजा की लापरवाही और मतधिकार-संबंधी उनकी अपात्रता का प्रमाण था।

मैंने सभा को सारी हकीकत समझा दी । पहला काम तो यह हुआ कि धारा-सभा के अध्यक्ष को तार दिया कि वह बिलपर आगे विचार करना स्थगित कर दें । ऐसा ही तार मुख्य प्रधान सर जान राबिंसन को भी भेजा, तथा एक और तार दादा अब्दुल्ला के मित्र के नाते मि० ऐस्कंब कों गया । तार का जवाब मिला कि बिल की चर्चा दो दिन तक स्थगित रहेगी । इससे सब लोगों को खुशी हुई।

अब दरख्वास्त का मसविदा तैयार हुआ । उसकी तीन प्रतियाँ भेजी जानेवाली थी । अखबारों के लिए भी एक प्रति तैयार करनी थी । उसपर जितनी अधिक सहियां ली जा सकें, लेनी थीं । यह सब काम एक रात में पूरा करना था । वे शिक्षित स्वयंसेवक क तथा दूसरे लोग लगभग सारी रात जगे । उनमें एक मि० आर्थर थे, जो बहुत बूढ़े थे और जिनका खत अच्छा था । उन्होंने सुंदर हरफों में दरख्वास्त की नकल की । औरों ने उसकी और नकलें कीं । एक बोलता जाता और पांच लिखते जाते । इस तरह पांच नकलें एक साथ हो गईं। व्यापारी स्वयंसेवक अपनी-अपनी गाड़ियां लेकर या अपने खर्चे से गाड़ियां किराया करके सहियां देने दौड़ पड़े ।

दरख्वास्त गई । अखबारों में छपी । उसपर अनुकूल टिप्पणियां निकलीं। धारा-सभा पर भी उसका असर हुआ । उसकी चर्चा भी खूब हुई । दरख्वास्त में जो दलीलें पेश की गई थीं, उनपर आपतियां उठाई गई--परंतु खुद उठानेवालों-

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