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आत्म कथा : भाग २


को ही वे लचर मालूम हुई । इतना करने पर भी बिल तो आखिर पास हो ही गया।

सब जानते थे कि यही होकर रहेगा; पर इतने आन्दोलन से हिंदुस्तानियों में नवीन जीवन आगया। सब लोग इस बात को समझ गये कि हम सबका समाज एक है। अकेले व्यापारी अधिकारों के लिए ही नहीं, बल्कि अपने कौमी अधिकारों के लिए भी लड़ना सबका धर्म है ।

इस समय लार्ड रिपन उपनिवेश-मंत्री थे । प्रस्ताव हुआ कि उन्हें एक भारी दरख्वास्त लिखकर पेश की जाय । इसपर जितनी अधिक सहियां मिलें ली जाय । यह काम एक दिन में नहीं हो सकता था । स्वयंसेवक तैनात हुए और सबने थोड़ा-थोड़ा काम का बोझ उठा लिया ।

दरख्वास्त तैयार करने में मैंने बड़ा परिश्रम किया । जितना साहित्य मेरे हाथ लगा, सब पढ़ डाला । हिंदुस्तान में हमें एक तरह का मताधिकार है, इस सिद्धांत की बात को तथा हिंदुस्तानियों की आबादी बहुत थोड़ी है, इस व्यावहारिक दलील को मैंने अपना मध्य बिंदु बनाया ।

दरख्वास्त पर दस हजार आदमियों के दस्तखत हुए । एक सप्ताह में दरख्वास्त भेजने के लिए आवश्यक सहियां प्राप्त हो गई । इतने थोड़े समय में नेटाल में दस हजार दस्तखत प्राप्त करने को पाठक ऐसा-वैसा काम न समझें । सारे नेटाल मैं से दस्तखत प्राप्त करने थे । लोग इस काम से अपरिचित थे । इधर यह निश्चय किया गया था कि तब तक किसी की सही न ली जाय, जब तक कि वे दस्तखत का आशय न समझ लें । इसलिए खास तौर पर स्वयंसेवकों को भेजने से ही सहियां मिल सकती थीं । गांव दूर-दूर थे । ऐसी अवस्था में ऐसे काम उसी हालत में जल्दी हो सकते हैं, जब बहुतेरे काम करने वाले निश्चय-पूर्वक काम में जुट पड़ें । ऐसा ही हुआ भी । सबने उत्साह-पूर्वक काम किया । इनमें से सेठ दाऊद मुहम्मद, पारसी रुस्तम जी, आदम जी मियां खान और आमद जीवा की मूर्तियां आज भी मेरी आखों में सामने आ जाती हैं। वे बहुतों के दस्तखत लाये थे । दाऊद सेठ दिन-भर अपनी गाड़ी लिये-लिये घूमते । किसी ने जेब-खर्च तक न मांगा ।

दादा अब्दुल्ला का मकान तो धर्मशाला अथवा सार्वजनिक कार्यालय जैसा हो गया था । शिक्षित भाई तो मेरे पास डटे ही रहते । उनका तथा दूसरे