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अध्याय १७ : बस गया


कर्मचारियों का खाना-पीना दादा अब्दुल्ला के ही यहां होता । इस तरह सब लोगों ने काफी खर्च बरदाश्त किया।

दरख्वास्त गई, उसकी एक हजार प्रतियां छपवाई गई थीं । उस दरख्वास्त ने हिंदुस्तान के देश-सेवकों को नेटाल का पहली बार परिचय कराया । जितने अखबारों तथा देश कें नेताओं का नाम-ठाम मैं जानता था, सबको दरख्वास्त की नकल भेजी गई थीं ।

"टाइम्स आफ इंडिया" ने उसपर अग्रलेख लिखा और भारतीयों की मांगका खासा समर्थन किया । विलायत में भी प्रार्थना-पत्र की नकलें तमाम दलके नेताओं को भेजी गई थीं । वहां "लंदन टाइम्स" ने उनकी पुष्टि की । इस कारण बिल के मंजूर न होने की आशा होने लगी।

अब ऐसी हालत हो गई कि में नेटाल न छोड़ सकता था । लोगों ने मुझे चारों और से आ घेरा और बड़ा आग्रह करने लगे कि अब मैं नेटाल में ही स्थायी रूप से रह जाऊं । मैंने अपनी कठिनाइयां उनपर प्रकट की । अपने मन में मैंने यह निश्चय कर लिया था कि मैं यहां सर्व-साधारण के खर्च पर न रहूंगा ।

अपना अलग इंतजाम करने की आवश्यकता मुझे दिखाई दी । घर भी अच्छा और अच्छे मुहल्ले में होना चाहिए-इस समय मेरा यही मत था । मेरा खयाल था कि दूसरे बैरिस्टरों की तरह ठाठ-बाठ से रहने में अपने समाज का मान-गौरव बढ़ेगा । मैंने देखा कि इस तरह तो मैं ३०० पौंड साल के बिना काम न चला सकूगा । तब मैंने निश्चय किया कि यदि यहां के लोग इतनी आमदनी के लायक वकालत का इंतजाम करा देने का जिम्मा लें तो रह जाऊंगा ! और मैंने लोगों को इसकी इत्तिला दे दी।

"पर इतनी रकम तो यदि आप सार्वजनिक कामों कें लिए ले तो कोई बात नहीं, और इतनी रकम जुटाना हमारे लिए कोई कठिन बात भी नहीं है। वकालत जो कुछ मिल जाय वह आपका।” साथियों ने कहा ।

“इस तरह में आर्थिक सहायता लेना नहीं चाहता । अपने सार्वजनिक काम का मैं इतना मूल्य नहीं समझता । इसमें मुझे वकालत का आडंबर थोड़े ही रचना है-मुझे तो लोगों से काम लेना है । इसका मुआवजा में द्रव्य के रूप में कैसे ले सकता हूं? फिर् आप लोगों से भी तो मुझे सार्वजनिक कामों के लिए