पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/१६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१४८
आत्म-कथा :, भाग २


धन लेना है । यदि मैं अपने लिए रुपया लेने लगूं तो आपसे बड़ी-बड़ी रकमें लेते हुए भुझे संकोच होगा, और अपनी गाड़ी रुक जायगी । लोगों से तो मैं हर साल ३०० पौंड से अधिक ही खर्च करा दूंगा । ” मैंने उत्तर दिया ।

“पर हम तो आपको अब अच्छी तरह जान गये हैं । आप अपने लिए थोड़े ही चाहते हैं । आपके रहने का खर्चा तो हमी लोगों को न देना चाहिए ?”

“यह तो आपका स्नेह और तात्कालिक उत्साह आपसे कहलवा रहा है । यह कैसे मान लें कि यही उत्साह सदा कायम रह सकेगा ? मुझे तो आपको कभी कड़वी बात भी कहनी पड़ेगी । उस समय भी मैं आपके स्नेह का पात्र रह सकूंगा या नहीं, सो ईश्वर जाने; पर असली बात यह है कि सार्वजनिक-काम के लिए रुपया-पैसा मैं न लूं । आप लोग सिर्फ अपने मामले मुकदमे मुझे देते रहने का वचन दें तो मेरे लिए काफी हैं । यह भी शायद आपको भारी मालूम होगा; क्योंकि मैं कोई गोरा बैरिस्टर तो हूं नहीं, और यह भी पता नहीं कि अदालत मुझ-जैसे को दाद देगी या नहीं । यह भी नहीं कह सकता कि पैरवी कैसी कर सकुंगा । इसलिए मुझे पहले से मेहनताना देने में भी आपको जोखिम उठानी पड़ेगी । और इतने पर भी यदि आप मुझे मेहनताना दें तो यह तो मेरी सेवाओं की बदौलत ही न होगा ?”

इस चर्चा का नतीजा यह निकला कि कोई २० व्यापारियों ने मिलकर मेरे एक वर्ष की आय का प्रबंध कर दिया । इसके अलावा दादा अब्दुल्ला बिदाई के समय मुझे जो रकम भेंट करने वाले थे उसके बदले उन्होंने मुझे आवश्यक फर्नीचर ला दिया और मैं नेटल में रह गया ।

१८
वर्गा-द्वेष

अदालतों का चिह्न है तराजू । उसे पकड़ रखने वाली एक निष्पक्ष, अंधी, परंतु समझदार बुढ़िया है । उसे विधाता ने अंधा बनाया है कि जिससे वह मुंह देखकर तिलक न लगावे; बल्कि योग्यता को देखकर लगावे । इसके विपरीत, नेटाल की अदालत से तो मुंह देखकर तिलक लगवाने के लिए वहां की