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अध्याय १८ : वर्ण-द्वेष

मैं उठा ! रजिस्ट्रार के पास जाकर शपथ ली । शपथ लेते ही प्रधान न्यायधिस ने कहा-“अब आपको को अपनी पगड़ी उतार देनी चाहिए। वकील के हैसियत से वकील पोशाक संबंधों अदालत का जो नियम है, उसका पालन आपको करना है?

मैंने अपनी अदा समझ ली । डरबन मजिस्ट्रेट के अदालत में पगड़ी पहन रहने की बात पर जो मैं अड़ा रहा था, सो वहां न रह सका। पगड़ी उतारी, यह बात नहीं कि पगड़ी उतारने के विरोध मैं दलील न थी; पर मुझे तो अब बड़ी लड़ाइयां लड़नी थी । पगड़ी पहने रहने की हठ में मैरी युद्ध-कला की समाप्ति न होती थी। उलटा इससे उसमें बट्टा लग जाता।

अब्दुल्ला सेठ तथा दुसरे मंत्री को मेरी यह नरसी (या कमजोरी ?) अच्छी न लगी ! वह चाहते थे कि वकील को हैसियत से भी मैं पगड़ी पहन रखने की टेक कायम रखता । मैंने उन्हें समझाने की भरसक कोशिश की है, जैसा देश वैसा भैस ? बाली कहावत के रहस्य समझा . “हिंदुस्तान में यदि वहां के गोरे अधिकारी अथवा जज पगड़ी उतार ने पर मजबूर करें तो उसका विरोध किया जा सकता हैं । नेटाल-जैसे में, और फिर अदालत के एक सदस्य को हैसियत से मुझे अदालत के रिवाज का, विरोध शोभा नहीं देता ।'

यह तथा दूसरी दलीलें देकर मित्रों को मैंने कुछ शांत तो किया; पर में नहीं बुझता कि एक ही बात को भिन्न परिस्थिति में भिन्न रीति से देखने के ओचित्य को में, इस समय, उनके हृदय पर इस तरह अंकित कर सका कि जिससे उन्हें संतोष हो; परंतु मेरे जीवन में अन्न और अनाग्रह दोनों सदा साथ-साथ चलते आते हैं। पीछे चलकर मैंने कई बार यह अनुभव किया है कि सत्याग्रह यह बात अनिवार्य है। अपनी इस समझौतावृत्ति के कारण मुझे कई बार अपनी जान जोखिम मैं डालनी पड़ी है और मित्रों के असंतोष को शिरोधार्य करना पड़ा हैं; पर सत्य तो वज्र की तरह कठोर और कमल की तरह कोमल है ।