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आत्म-कथा : भाग २

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नेटाल इंडियन कांग्रेस

वकील-सभा के विरोध ने दक्षिण अफ्रीका में मेरे लिए एक विज्ञापन का काम कर दिया है कितने ही अखबारों ने मेरे खिलाफ उठाये गये विरोध की निंदा की और वकीलों पर ईर्ष्या का इलजाम लगाया। इस प्रसिद्धि से मेरा काम कुछ अंश में अपने-आप सरल हो गया।

वकालत करना मेरे नजदीक गौण बात थी और हमेशा ही रही। नेटाल में अपना रहना सार्थक करने के लिए मुझे सार्वजनिक काम में ही तन्मय हो जाना जरूरी था। भारतीय मताधिकार-प्रतिरोधक कानून के विरोध में आवाज उठाकर-महज दरख्वास्त भेजकर चुप न बैठा जा सकता था। उसका आंदोलन होते रहने से ही उपनिवेशों के मंत्रीपर असर हो सकता था। इसके लिए एक संस्था स्थापित करने की आवश्यकता दिखाई दी। अतः मैंने अब्दुल्ला सेठ के साथ मशविरा किया। इसके साथियों से भी मिला और हम लोगों ने एक सार्वजनिक संस्था खड़ी करने का निश्चय किया है।

उसका नाम रखने में कुछ धर्म-संकट आया। यह संस्था किसी पक्ष का पक्षपात नहीं करना चाहती थी। महासभा (कांग्रेस का) नाम कंजरवेटिव (प्राचीन) पक्ष में अरुचिकर था, यह मुझे मालूम था, परंतु महासभा तो भारत का प्राण थी। उसकी शक्ति बढ़ाना जरूरी था। उसके नाम को छिपाने में अथवा धारण करते हुए संकोच रखने में कायरता की गंध आती थी। इसलिए मैंने अपनी दलीलें पेश करके संस्था का नाम 'कांग्रेस' ही रखने का प्रस्ताव दिया। और २२ मई, १८९४ को 'नेटाल इंडियन कांग्रेस' का जन्म हुआ है।

दादा अब्दुल्ला का बैठकखाना लोगों से भर गया था। उन्होंने उत्साह के साथ इस संस्था का स्वागत किया। विधान बहुत सादा रक्खा था, पर चंदा भारी रक्खा गया था। जो हर मास कम-से-कम पांच शिलिंग देता वही सभ्य हो सकता था। धनिक लोग राजी-खुशी से जितना अधिक दे सकें, चंदा दें, यह तय हुआ। अब्दुल्ला सेठ से हर मास दो पौंड लिखाये। दूसरे दो सज्जनों ने भी इतना ही चंदा लिया। खुद भी सोचा कि मैं इसमें संकोच कैसे करूं? इसलिए मैंने भी प्रति-