थे। सबको भूख लग रही थी; पर जब तक चंदा न मिले तबतक भोजन कैसे करते? खूब मित्रत-खुशामद की गई। पर वह टस-से-मस न हुए। गांव के दूसरे व्यापारियों ने भी उन्हें समझाया। सारी रात इसी खींचतानी मैं गई। गुस्सा तो कई साथियों को आया;पर किसी ने अपना सौजन्य ने छोड़ा! ठेठ सुबह जाकर देह पसीजे और छ: पौंड़ दिये। तब जाकर हम लोगों को खाना नसिब हुआ। यह घटना टोंगाट की है। इसका असर उत्तर किनारेपूर ठेठ स्टेंगर तक तथा अंदर ठेठ चार्ल्सटाउन तक पड़ा और चंदा-वसूली का हमारा मर सरल हो गया।
परंतु प्रयोजन केवल इतना है न था कि चंदा एकत्र किया जाय। अवश्यकता से अधिक रुपया जमा न करने तत्व भी मैंने मान लिया था।
सभा प्रति सप्ताह वा प्रति मास अवश्यकता अनुसार होती है इसमें पिछली सभा की कार्रवाई पढी जाती और अनेक बातों पर चर्चा होती। चर्चा करने तथा थोडे में मतलब की बात कहने की आदत लोगों को न थी। लोग खड़े होकर बोलने में सकुचाते। मैंने सभा के नियम उन्हें समझाये और लोगों ने उन्हें माना! इससे होनेवाला लाभ उन्होंने देखा और जिन्हें सामने बोलने का रक्त न था ने सार्वजनिक कानों के लिए बोलने और विचारने लगे।
सार्वजनिक कमों में छोटी-छोटी बातों में बहुत-सा खर्च हो जाया करता हैं,यह मैं जानता था! शुरू हो रसीद-बुकतक न छापने का निश्चय रक्खा था। मेरे दफ्तर में साईक्लोस्टाइल था.उसपर रसीदें छपा लीं। रिपोर्ट भी इसी तरह छपती। जब रुपया-पैसा काफी आ गया,अय्कीकीं संख्या बढ़ गई, तभी रसीदें इत्यादि छपाई गईं। ऐसी किफायतशारी हर संस्था में आवश्यक है। फिर भी मैं जानता हूं कि सब जगह ऐसा नहीं होता है। इसलिए इस छोटी-सी उगती हुई संस्था के परवरिश के समय का इतना वर्णन कर मैंने ठीक हो। लोग रसीद लेने की पर्वा न करते,फिर भी उन्हें आग्रह-पूर्वक रसीद दी जाती। इस कारण हिसाब शुरू से ही पाई-पाई का साफ रहा,और मैं मानता हूँ कि आज भी नेटाल-कांग्रेस के दफ्तर १८९४के बही-खाते ब्योरेवार मिल जायंगे। किसी भी संस्था का विस्तार हिसाव उसकी नाक हैं। इसके बिना वह् संस्था अंत को जाकर मंदी और प्रतिष्ठा-हीन हो जाती है। शुद्ध हिसाब के बिना शुद्ध सत्य की