ब्रीफ','व्हाट-टू डु' इत्यादि पुस्तकों ने मेरे दिलपर गहरी छाप डाली। विश्व प्रेम मनुष्य को कहां तक ले जाता है, यह मैं उससे अधिकाधिक समझने लगा।
इन्हीं दिनों एक दूसरे ईसाई-कुटुंब के साथ मेरा संबंध बंधा। उन लोगों की इच्छा से में वेस्लियन गिरजा हर रविवार को जाता। प्रायः हर रविवार को मेरा शामका खाना भी उन्हीं के यहां होता । वेस्लियन गिरजा का मुझपर अच्छा असर न हुआ। वहां जो प्रवचन हुआ करते थे वे मुझे नीरस मालूम हुए। उमन्ति जनों में मुझे भक्ति-भाव न दिखाई दिया । ग्यारह बजे एकच होने वाली यह भंडली मुझे भक्तों की नहीं, बल्कि कुछ तो मनोविनोदके लिए और कुछ प्रथा क्रे प्रभाव के एकत्र होनेवाले संसारी जीवों की टोलीं मालूम हुई । कभी तो इस सभा में बरबस मुझे नींद के झोके आने लगते, जिससे में लज्जित होता; पर जब मैं अपने आसपासवालों को भी झोके खाते देखता, तो मेरी लज् हलकी' पड़ जाती । अपनी यह स्थिति मुझे अच्छी न मालूम हुई। अंतको मैंने गिरजा जाना ही छोड़ दिया ।
जिस परिवार के यहां में हर रविवार को जाता था, वहां से भी मुझे इस तरह से छुट्टी मिली । गृह-स्वामिनी भोली, भाली, परंतु संकुचित विचारवाली मालूम हुई । उसके साथ हर वक्त कुछ-न-कुछ धार्मिक चर्चा हुआ ही करती । उन दिनों में घरपर ‘लाइट ऑफ एशिया' पढ़ रहा था। एक दिन हम ईसा और बुद्ध की तुलना के फेर में पड़ गये..
“बुद्ध की दया को देखिए। मनुष्य-जाति से आगे बढ़कर वह दूसरे प्राणियो तक जा पहुंची। उसके कंधे पर किलोल करने वाले मेमने का दृश्य आंखो के मन भात ही आपका दृश्य प्रेम नहीं उमड़ पड़ता ? प्राणिमात्र के यह प्रेम मुझे ईसा के जीवन में कहीं दिखाई नहीं देता।
मेरे इस कथन से उस बहन को दुःख हुआ। मैं उनकी भावना को समझ गया व अपनी बात आगे न चलाई। बाद को हम भोजन करने गये। उसका कोई पांच साल को हंस मुख बच्चा हमारे साथ था । बालक मेरे साथ होने पर मुझे फिर किस बात की जरूरत ? उसके साथ मैंने दोस्ती तो पहले ही कर ली थी । मैंने उसकी थाली पड़े मांस के टुकड़े का मजाक किया और अपनी रकाबी में शोभित
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