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आत्म-कथा : भाग २


नासपाती की स्तुति शुरू की ! भोलाभाला बालक रीझा और नासपाती की स्तुति मैं शरीक हो गया।

परंतु माता ? वह तो बेचारी दु:खों मैं पड़ गई।

मैं चैता। चुप हो रहा और बात का विषय बदल दिया।

दूसरे सप्ताह में सावधान रहकर उसके यहां गया तो, पर मेरा पांव मुझे :भारी मालूम हो रहा था । अपने-आप उसके यहां जाना बंद कर देना मुझे न सुझा, व उचित मालुम हुआ; पर उस भली बनने ही मेरी कठिनाई हल कर दी। वह बोली--“मि० गांधी, अप बुरा न मानें, अपकी सोहबत का असर मेरे लड़के पर बुरा होने लगा है। अब वह रोज मांस खाने में आनाकानी करने लगा है। और उस दिन की आप की बातचीत की याद दिलाकर फल मांगता हैं ! मुझे यह गवारा न हो सकेगा। मेरा बच्चा यदि मांस खाना छोड़ दे तो चाहे बीमार न हो; पर कमजोर जरूर हो जायगा। मैं यह कैसे देख सकती हूं ? आपकी चर्चा हम प्रौढ़ लोगों में तो फायदेमंद हो सकती है; पर बच्चों पर तो उसका असर बुरा ही पड़ता है।"

"मिसेज--- मुझे खेद है। आपके,---माता--मनोभाव को मैं समझ सकता हूं। मेरे भी बाल-बच्चे हैं। इस अपत्ति का अंत आसानी से हो सकता है। मेरी बातचीत की अपेक्षा मेरे खान-पान का और उसको देखने का असर बालकों पर बहुत ज्यादा होता है। इसलिए सीधा रास्ता यह है कि अब से रविवार को मैं आपके यहां न आया करू। हमारी मित्रता मैं इससे किसी प्रकार फर्क न आवेगा।

  • मैं आपका अहसान मानती हूं।' बाई ने खुश होकर उत्तर दिया।
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गृह-व्‍यावस्था

बंबई तथा विलायत में मैने जो घर-गृहस्थी सजाई थी, उसमें और नेटाल में जो घर बसाना पड़ा उसमें भिन्नता थी। नेटाल में कितना ही खर्च तो महज प्रतिष्ठा के लिए मैं उठा रहा था। मैंने यह मान लिया था कि भारतीय बैरिस्टर और भारतीयों के प्रतिनिधि को हैसियत से नेटाल में मुझे अपनी रहन-सहन खर्चीली।