पृष्ठ:Satya Ke Prayog - Mahatma Gandhi.pdf/१९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७१
अध्याय २५ : हिंदुस्तान मैं
२५
हिंदुस्तान में

कलकत्ता से बंबई जाते हुए रास्ते प्रयाग पड़ता था। वहां ४५ मिनट गाड़ी खड़ी रहती थी। मैंने सोचा कि इतने समय जरा शहर देख आऊं। मुझे दावारोश के यहां से दवा भी लेनी थी। दवाफरोश ऊंघता हुआ बाहर आया। दवा देने में बड़ी देर लगा दी। ज्योंही में स्टेशन पर पहुंचा, गाड़ी चलती हुई दिखाई दी। भले स्टेशन मास्टर ने गाड़ी एक मिनट रोकी भी; पर फिर मुझे वापस न आता देखकर मेरा सामान उतरवा लिया।

मैं कलनेर के-होटल में उतरा और यहां से अपना काम शुरू करने का निश्चय किया। यहां के पायोनियर पत्र की ख्याति मैंने सुनी थी। भारत की आकांक्षाओं का वह विरोधी था, यह में जानता था। मुझे याद पड़ता हैं कि उस समय मि० चेजनी (छोटे) उसके संपादक थे। मैं तो सब पक्ष के लोगों से मिलकर सहायता प्राप्त करना चाहता था। इसलिए मि० चेजनी को मैंने मिलने के लिए पत्र लिखा। अपनी ट्रेन छूट जाने का हाल लिखकर सूचित किया कि कल ही मुझे प्रयाग से चला जाना है। उत्तर में उन्होंने तुरंत मिलने के लिए बुलाया। मैं खुश हुआ। उन्होंने गौरो से मेरी बातें सुनीं। 'आप जो कुछ लिखेंगे, मैं उसपर तुरंत टिप्पणी करूंगा,' यह आश्वासन देते हुए उन्होंने कहा--- "पर मैं आपसे यह नहीं कह सकता कि आपकी सब बातों कों में स्वीकार कर सकेंगा। औपनिवेशिक दृष्टि बिंदु भी तो हमें समझना देखना चाहिए न ?'

मैंने उत्तर दिया--"आप इस प्रश्न का अध्ययन करें और अपने पत्र में इसकी चर्चा करते रहें, यही मेरे लिए काफी है। शुद्ध न्याय के अलावा में और कुछ नहीं चाहता।"

शेष समय प्रयाग के भव्य त्रिवेणी-संगम के दर्शन और अपने काम के विचारों या।

इस आकस्मिक मुलाकात ने नेटाल में मुझपर हुए हमले का बीजारोपण किया।