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आत्म-कथा : भाग २

बंबई से बिना कहीं रुके सीधा राजकोट गया और एक पुस्तिका लिखने कीं तैयारी की; उसे लिखने तथा छपाने में कोई एक महीना लग गया। उसका मुखपृष्ठ हरे रंग का था; इस कारण वह बाद मे 'हरी पुस्तिका' के नाम से प्रसिद्ध हो गई थी। उसमें मैने दक्षिण-अफ्रीका के हिंदुस्तानियों की स्थिति का चित्र खींचा था; और सोच-समझकर उसमें न्यूनोक्ति से काम लिया था। नेटाल की जिन पुस्तिकाओं का जिक्र मैं ऊपर कर चुका हूं, इसमें उनसे नरम भाषा इस्तैमाल की गई थी; क्योंकि मैं जानता हूं कि छोटा दुःख भी दूरसे देखते हुए बड़ा मालूम होता है।

‘हरी पुस्तिका'की दस हजार प्रतियां छपवाई और सारे हिंदुस्तान के अखबारों को तथा भिन्न-भिन्न दलों के मशहूर लोगों को भेजीं। ‘पायोनियर' में उसपर सबसे पहले लेख प्रकाशित हुआ। उसका सारांश विलायत गया और उस सारांश का सार फिर रूटर की गार्फत नेटाल गया। यह तार सिर्फ तीन लाइन का था। वह नेटाल के हिंदुस्तानियों के दु:खों के मेरे किये वर्णन का छोटा-सा संस्करण था। वह मेरे शब्दों में न था। उसका जो असर वहां हुआ वह हम आगे चलकर देखेंगे। धीरे-धीरे तमाम प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों में इस प्रश्न पर टिप्पणियां हुई।

इन पुस्तिकों को डाक में डालने के लिए तैयार कराना उलझन का और दाम देकर कराना तो खर्च का भी काम था। मैंने एक आसान तरकीब खोज निकाली। मुहल्ले के तमाम लड़कों को इकट्ठा किया और सुबह के समय दो−तीन घंटे उनसे मांगे। लड़कों ने इतनी सेवा खुशी से मंजूर की। अपनी तरफ से मैंने उन्हें डाक के रद्दी टिकट तथा आशीष देना स्वीकार किया। लड़कों ने खेल खेल में मेरा काम पूरा कर दिया। छोटे-छोटे बालकों को स्वयंसेवक बनाने का मेरा यह पहला प्रयोग था। इस दल के दो बालक आज मेरे साथी हैं।

इन्हीं दिनों पहले-पहल प्लेग का दौरा हुआ। चारों ओर भगदड़ मच गई थी। राजकोट में भी उसके फैल जाने का डर था। मैंने सोचा कि आरोग्य विभाग में अच्छा काम कर सकूंगा। मैंने राज्य को लिखा कि मैं अपनी सेवायें अर्पित करने को तैयार हूं। राज्य ने एक समिति बनाई और उसमें मुझे भी रक्खा। पाखानों की सफाई पर मैंने जोर दिया और समिति ने मुहल्ले-मुहल्ले जाकर पाखानों-