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आत्म-कथा : भाग २


कोई कमरा मुश्किल से बिना बदबू वाला होगा। पर एक घर में तो सोने के कमरे में मोरी और पाखाना दोनों देखे और यह सारा मैला नल में से नीचे उतरता था। इस कमरे में खड़ा होना मुश्किल था। अब पाठक ही इस बात का अंदाजा कर लें कि उसमें घर वाले सो कैसे सकते होंगे ?

समिति हवेली-वैष्णव मंदिर--देखने भी गई थी। हवेली के मुखियाजी से गांधी-कुटुंबका अच्छा संबंध था। मुखिया जी ने हवेली देखने देना तथा जितना हो सके सुधार करना स्वीकार किया। उन्होंने खुद उस हिस्से को कभी न देखा था; हवेली की पत्तलें और जूठन आदि पीछे की छत से फेंक दिये जाते। वह हिस्सा कौओं और चीलों का घर बन गया था। पाखाने तो गंदे थे ही। मुखिया जी ने कितना सुधार किया, यह मैं न देख पाया। हवेली की गंदगी देखकर दुःख तो बहुत हुआ। जिस हवेली को हम पवित्र स्थान समझते हैं, वहां तो आरोग्य के नियमों का काफी पालन होने की आशा रखते हैं। स्मृतिकारों ने जो बाह्यान्तर शौच पर बहुत जोर दिया है, यह बात मेरे ध्यान से बाहर उस समय भी न थी।

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राजनिष्ठा और शुश्रूषा

शुद्ध राजनिष्ठा का अनुभव मैंने जितना अपने अंदर किया है उतना शायद ही दूसरों में किया हो। मैं देखता कि इस राजनिष्ठा का मूल है मेरा सत्य के प्रति स्वाभाविक प्रेम। राजनिष्ठा का अथवा किसी दूसरी चीज का ढोंग मुझसे आजतक न हो सका। नेटाल में जिस किसी सभा में मैं जाता, ‘गॉड सेव दि किंग' बराबर गाया जाता। मैंने सोचा, मुझे भी गाना चाहिए। यह बात नहीं कि उस समय मुझे ब्रिटिश राज्य-नीति में बुराइयां न दिखाई देती थीं। फिर भी आमतौर पर मुझे यह नीति अच्छी मालूम होती थी। उस समय यह मानता था कि ब्रिटिश राज्य तथा राज्य-कर्ताओं की नीति कुल मिलाकर प्रजा-पोषक है।

पर दक्षिण अफ्रीका में उलटी नीति दिखाई देती; रंग-द्वेष नजर आता। मैं समझता कि यह क्षणिक और स्थानिक है। इस कारण राजनिष्ठा में मैं अंग्रेजों की प्रतिस्पर्द्धा करने की चेष्टा करता। बड़े श्रमके साथ अंग्रेजों के राष्ट्र-गीत ‘गॉड़