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अध्याय २५ : हिंदुस्तानमें


सेव दि किंग'का स्वर मैंने साधा । सभाओं में जब वह गाया जाता, तब अपना सुर उसमें मिलाता । और बिना आडंबर किये वफादारी दिखाने के जितने अवसर आते सब में शरीक होता ।

अपनी जिंदगी में कभी मैंने इस राजनिष्ठा की दूकान नहीं लगाई । अपना निजी मतलब साध लेने की कभी इच्छा तक न हुई । वफादारी को एक तरह का कर्ज समझकर मैंने उसे अदा किया है ।

जब भारत आया, तब महारानी विक्टोरिया की डायमंड जुबिली की तैयारियां हो रही थीं । राजकोट में भी एक समिति बनाई गई । उसमें मैं निमंत्रित किया गया । मैंने निमंत्रण स्वीकार किया; पर मुझे उसमें ढकोसले की बू आई । मैंने देखा कि उसमें बहुतेरी बातें महज दिखावे के लिए की जाती हैं । यह देखकर मुझे दुःख हुआ । मैं सोचने लगा कि ऐसी दशा में समिति में रहना चाहिए, या नहीं ? अंत को यह् निश्चय किया कि अपने कर्तव्य का पालन करके संतोष मान लेना ही ठीक हैं ।

एक तजवीज यह थी कि पेड़ लगाये जायं । इसमें मुझे पाखंड दिखाई दिया । मालूम हुआ कि यह सब महज साहब लोगों को खुश करने के लिए किया जाता है । मैंने लोगों को यह समझाने की कोशिश की कि पेड़ लगाना लाजिमी नहीं किया गया है, सिर्फ सिफारिश भर की गई है । यदि लगाना ही हो तो फिर सच्चे दिलसे लगाना चाहिए, नहीं तो मुतलक नहीं । मुझे कुछ-कुछ ऐसा याद पड़ता है कि जब मैं ऐसी बात कहता तो लोग उसे हंसी में उड़ा देते थे । जो हो, अपने हिस्से का पेड़ मैंने अच्छी तरह बोया और उसकी परवरिश भी की, यह अच्छी तरह याद है ।

'गॉड सेव दि किंग ’ में अपने परिवार के बच्चों को भी सिखाता था । मुझे याद है कि ट्रेनिंग कालेज के विद्यार्थियों को मैंने यह सिखाया था; पर तुझे यह ठीक-ठीक याद नहीं पड़ता कि यह इसी मौके पर सिखाया था, अथवा सप्तम । एडवर्ड के राज्यारोहण के प्रसंग पर । आगे चलकर मुझे यह गीत गाना अखरा । ज्यों-ज्यों मेरे मन में अहिंसा के विचार प्रबल होते गये, त्यों-त्यों मैं अपनी वाणी और विचार की अधिक चौकीदारी करने लगा । इस गीतमें ये दो पंक्तियां भी हैं-

‘उसके शत्रुओं का नाश कर;
उनकी चालों विफल कर ।’