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अध्याय २६ : राजनिष्ठा और शुश्रषा


शास्त्रीके नामसे वीरवन्द गांधीने मुझे उनका परिचय कराया था। उन्होंने कहा-- * गांधी,हम फिर भी मिलेंगे।"

कुल दो ही मिनटमें यह सब हो गया। सर फिरोजशाहले मेरी बात सुन ली। न्यायमूर्ती रानडे और तैयबजीसे मिलनेकी भी बात मैंने कही। उन्होंने कहा-“ गांधी,तुम्हारे कामके लिए मुझे एक सभा करनी होगी। तुम्हारे काममें जरूर मदद देनी चाहिए।' मुंशकी ओर देखकर सभाका दिन निश्चय करने के लिए कहा है दिन तय हुआ और मुझे छुट्टी मिली। कहा-“ सभा के एक दिन पहले मुझसे मिल लेना।",निश्चित होकर इन फूलता हुन्ना मैं अपने घर गया है।

मेरे बहनोई बंबईमें रहते थे,उनसे मिलने गया। वह बीमार थे। गरीब होलत थी। वहन अकेली उनकी सेवा-शुश्रूषा नहीं कर सकती थी। बीमारी सख्त थी। मैंने कहा----* मेरे साथ राजकोट चलिए।' दह राजी हुए। बहन-बहनोईको लेकर मैं राजकोट गया। बीमारी अंदाजसे बाहर भीषण हो गई थी। मैंने उन्हें अपने कमरेमें रखा। दिन भर मैं उनके पास ही रहता। रातको भी जाना पड़ता। उनकी सेवा करते हुए दक्षिण का काम में कर रहा था। अंतमें बहनोईका स्वर्गवास हो गया;पर मुझे इस तसे कुछ संतोष रहा कि अंत सुमय उनकी सेवा करनेका अवसर मुझे मिल गया।

शुश्रूषके इस कने आगे चलकर व्यापक रूप धारण किया। वह यहांतक कि उसमें मैं अपना काम-धंधा छोड़ बैठता है अपनी धर्मपत्नीको भी उसमें शता और सारे घरको भी शामिल कर लेता था। इस वृत्तिको मैंने “शौक'कहा है;क्योंकि मैंने देखा कि यह गुण तभी निभता है,जब आनंददायक हो जाता है। खींचातानी करके दिखावे या मुलाहिजेके लिए जब ऐसे काम होते हैं,तब वह मनुष्यको कुचल डालते हैं और उनक-हुए-मनुष्य सुरक्षा जाता है। •जिस सेवासे चित्तको आनंद नहीं मालभ होता,वहून सेदकको फलती है,न सेव्यको सुहाती है। जिस सेवासे चित्त आनंदित होता है उसके सामने ऐशोआराम या नोपार्जन इत्यादि दाते तुच्छ मालूम होती हैं।