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अध्याय २७ : बंबई में सभा


किया । सर फिरोजशाह मुझे उत्साहित करते जाते-- ‘ हां, जरा और ऊंची आवाज में ! ' ज्यों-ज्यों वह ऐसा कहते त्यों-त्यों मेरी आवाज गिरती जाती थी ।

मेरे पुराने मित्र केशवराव देशपांडे मेरी मदद के लिए दौड़े । मैंने उनके हाथ में भाषण सौंपकर छुट्टी पाई । उनकी आवाज् थी तो बुलंद; पर प्रेक्षक क्यों सुनने लगे ? 'वाच्छा’, ‘ वाच्छा की पुकार से हाल गूंज उठा । अब वाच्छा उठे । उन्होंने देशपांडे के हाथ से कागज लिया और मेरा काम बन गया । सभा में तुरंत सन्नाटा छा गया और लोगों ने 'आथ से इतितक' भाषण सुना । मामूली के मुताबिक प्रसंगानुसार शर्म', 'शर्म' की अथवा करतल-ध्वनि हुई । सभा के इस फलसे मैं खुश हुआ ।

सर फिरोजशाह को भाषण पसंद आया । मुझे गंगा नहाने के बराबर संतोष हुआ ।

इस सभा के फल-स्वरूप देश पांडे तथा एक पारसी सज्जन ललचाये । पारसी सज्जन आज एक पदाधिकारी हैं, इसलिए उनका नाम प्रकट करते हुए हिचकता हूं । जज खुरशेदजी ने उनके निश्चय को डांवाडोल कर दिया । उसकी तह में एक पारसी बहन थी । विवाह करें या दक्षिण अफ्रीका जायं ? यह समस्या उनके सामने थी । अंत को विवाह कर लेना ही उन्होंने अधिक उचित समझा, परंतु इन पारसी मित्र की तरफ से पारसी रुस्तमजी ने इसका प्रायश्चित्त किया । और उस पारसी बहन की ओर से दूसरी पारसी बहनें, सेविका बनकर खादी के लिए वैराग्य लेकर, प्रायश्चित्त कर रही हैं । इस कारण इस दंपती को मैनें माफ कर दिया है । देशपांडे को विवाह का प्रलोभन तो न था; पर वह भी न आ सके । इसका प्रायश्चित्त अब वह खुद ही कर रहे हैं। लौटती बार रास्ते में जंजीबार पड़ता था। वहां एक तैयबजी से मुलाकात हुई । उन्होंने भी आनेकी आशा दिलाई थी; पर वे भला दक्षिण अफ्रीका क्यों आने लगे ? उनके न आने के गुनाह का बदला अब्बास तैयबजी चुका रहे हैं; परंतु बैरिस्टर मित्रों को दक्षिण अफ्रीका आने के लिए लुभाने के मेरे प्रयत्न इस तरह विफल हुए ।

यहां मुझे पेस्तन जी बादशाह याद आते हैं । विलायत से ही उनका मेरा मधुर संबंध हो गया था । पेस्तन जी से मेरा परिचय लंदन के अन्नाहारी