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आत्म-कथा : भाग १

मेरे पिताजी कुटुंब-प्रेमी, सत्यप्रिय, शूर और उदार परंतु साथ ही क्रोधी थे। मेरा खयाल है, कुछ विषयासक्त भी रहे होंगे। उनका अंतिम विवाह चालीस वर्षकी अवस्था के बाद हुआ था। वह रिश्वतसे सदा दूर रहते थे, और इसी कारण अच्छा न्याय करते थे, ऐसी प्रसिद्धि उनकी हमारे कुटुंबमें तथा बाहर भी थी। वह राज्यके बड़े वफादार थे। एक बार असिस्टेंट पोलिटिकल एजेंटने राजकोटके ठाकुरसाहबसे अपमानजनक शब्द कहे तो उन्होंने उसका सामना किया। साहब बिगड़े और कबा गांधीसे कहा, माफी मांगो। उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। इससे कुछ घंटेके लिए उन्हें हवालातमें भी रहना पड़ा। पर वह टस-से-मस न हुए। तब साहबको उन्हें छोड़ देनेका हुक्म देना पड़ा।

पिताजीको धन जोड़नेका लोभ न था। इससे हम भाइयोंके लिए वह बहुत थोड़ी सम्पत्ति छोड़ गये थे।

पिताजीने शिक्षा केवल अनुभव-द्वारा प्राप्त की थी। आजकी अपर प्राइमरीके बराबर उनकी पढ़ाई हुई थी। इतिहास, भूगोल बिलकुल नहीं पढ़े थे। फिर भी व्यावहारिक ज्ञान इतने ऊंचे दरजेका था कि सूक्ष्म-से-सूक्ष्म प्रश्नोंको हल करनेमें अथवा हजार आदमियोंसे काम लेनेमें उन्हें कठिनाई न होती थी। धार्मिक शिक्षा नहीं-के बराबर हुई थी। परंतु मंदिरोंमें जानेसे, कथा-पुराण सुननेसे, जो धर्मज्ञान असंख्य हिंदुओंको सहज ही मिलता रहता है, वह उन्हें था। अपने अंतिम दिनोंमें एक विद्वान् ब्राह्मणकी सलाहसे, जोकि हमारे कुटुंबके मित्र थे, उन्होंने गीता-पाठ शुरू किया था, और नित्य कुछ श्लोक पूजाके समय ऊंचे स्वरसे पाठ किया करते थे।

माताजी साध्वी स्त्री थीं, ऐसी छाप मेरे दिलपर पड़ी है। वह बहुत भावुक थीं। पूजा-पाठ किये बिना कभी भोजन न करतीं, हमेशा हवेली-वैष्णव मंदिर-जाया करतीं। जबसे मैंने होश सम्हाला, मुझे याद नहीं पड़ता कि उन्होंने कभी चातुर्मास छोड़ा हो। कठिन-से-कठिन व्रत वह लिया करतीं और उन्हें निर्विघ्न पूरा करतीं। बीमार पड़ जानेपर भी वह व्रत न छोड़तीं। ऐसा एक समय मुझे याद है, जब उन्होंने चांद्रायणव्रत किया था। बीचमें बीमार पड़ गई, पर व्रत न छोड़ा। चातुर्मासमें एक बार भोजन करना तो उनके लिए मामूली बात थी। इतनेसे संतोष न मानकर एक बार चातुर्मासमें उन्होंने हर