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अध्याय २९ : ‘जल्दी लौटो

संस्करण दस हजार का छपवाया। उनका बहुतांश निकल गया; पर मैंने देखा कि दस हजार की जरूरत न थी, लोगों के उत्साह को मैंने अधिक आंक लिया था। मेरे भाषण का असर तो अंग्रेजी बोलनेवालों पर ही हुआ था और अकेले मद्रास में अंग्रेजीदां लोगों के लिए दस हजार प्रतियों की आवश्यकता न थी।

यहां मुझे बड़ी-से-बड़ी सहायता स्वर्गीय जी० परमेश्वरन् पिल्ले से मिली। वह 'मदरास स्टैंडर्ड' के संपादक थे। उन्होंने इस प्रश्न का अच्छा अध्ययन कर लिया था। वह बार-बार अपने दफ्तर में बुलाते और सलाह देते। 'हिंदू के जी० सुब्रह्मण्यम् से भी मिला था। उन्होंने तथा डा० सुब्रह्मण्यम् ने भी पूरी-पूरी हमदर्दी दिखाई; परंतु जी० परमेश्वरन् पिल्ले ने तो अपना अखबार इस काम के लिए मानो मेरे हवाले ही कर दिया और मैंने भी दिल खोलकर उसका उपयोग किया। सभा पाच्याप्पाहाल में हुई थी और डा० सुब्रह्मण्यम् अध्यक्ष हुए थे, ऐसा मुझे स्मरण हैं।

मद्रास में मैंने बहुतों का प्रेम और उत्साह इतना देखा कि यध्यपि वहां सबके साथ मुख्यतः अंग्रेजी में ही बोलना पड़ता था फिर भी, मुझे घर के जैसा ही मालूम हुआ। सच है, प्रेम किन बंधनों को नहीं तोड़ सकता।

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'जल्दी लौटो'

मद्रास से मैं कलकत्ता गया। कलकत्ते में मेरी कठिनाइयों की सीमा न रही। वहां 'ग्रेंड ईस्टर्न' होटल में उतरा। न किसी से जान न पहचान। होटल में 'डेली टेलीग्राफ' के प्रतिनिधि मि० एलर थार्प से पहचान हुई। वह रहते थे बंगाल क्लब में। वहां उन्होंने मुझे बुलाया। उस समय उन्हें पता न था कि होटल के दीवानखाने में कोई हिंदुस्तानी नहीं जा सकता। बादको उन्हें इस रुकावट का हाल मालूम हुआ। इसलिए वह मुझे अपने कमरे में ले गये। भारतवासियों के प्रति स्थानीय अंग्रेजों के इस हेय-भाव को देखकर उन्हें खेद हुआ। दीवानखाने में न ले जा सकने के लिए उन्होंने मुझसे माफी मांगी।

बंगाल के देव'.सुरेन्द्रनाथ बनर्जी से वो मिलना ही था। उनसे जब