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अध्याय २९ : 'जल्दी लौटो


अफ्रीका के प्रश्न का महत्व समझते थे। उन्होंने मेरी लंबी-लंबी बातचीत छापी, 'इंग्लिशमैन' के मि० सांडर्स ने मुझे अपनाया। उनका दफ्तर मेरे लिए खुला था, उनका अखबार मेरे लिए खुला था। अपने अग्रलेख में कमीबेशी करने की भी छूट उन्होंने मुझे दे दी। यह भी कहूं तो अत्युक्ति नहीं कि उनका मेरा खासा स्नेह हो गया। उन्होंने भरसक मदद देने का वचन दिया, मुझसे कहा कि दक्षिण अफ्रीका जाने के बाद भी मुझे पत्र लिखिएगा और वचन दिया कि मुझसे जो-कुछ हो सकेगा करूंगा। मैंने देखा कि उन्होंने अपना यह वचन अक्षरशः पाला; और जबतक कि उनकी तबीयत खराब न हो गई, उन्होंने मेरे साथ चिट्ठी-पत्री जारी रक्खी। मेरी जिंदगी में ऐसे अकल्पित मीठे संबंध अनेक हुए हैं। मि० सांडर्स को मेरे अंदर जो सबसे अच्छी बात लगी वह थी अत्युक्ति का अभाव और सत्यपरायणता। उन्होंने मुझसे जिरह करने में कोरकसर न रक्खी थी। उसमें उन्होंने अनुभव किया कि दक्षिण अफ्रीका के गोरों के पक्ष को निष्पक्ष होकर पेश करने में तथा उनकी तुलना करने में मैंने कोई कमी नहीं रक्खी थी।

मेरा अनुभव कहता है कि प्रतिपक्षी के साथ न्याय करके हम अपने लिए जल्दी न्याय प्राप्त करते हैं।

इस प्रकार मुझे अकल्पित सहायता मिल जाने से कलकत्त में भी सभा करने की आशा बंधी; पर इसी अर्से में डरबन से तार मिला-- 'पार्लमेंट की बैठक जनवरी में होगी, जल्दी लौटो।'

इस कारण अखबारों में इस आशय की एक चिट्ठी लिखकर कि मुझे दक्षिण अफ्रीका चला जाना जरूरी है, मैंने कलकत्ता छोड़ा और दादा अब्दुल्ला के एजेंट को तार दिया कि पहले जहाज से जाने का इंतजाम करो। दादा अब्दुल्ला ने खुद 'कुरलैंड' जहाज खरीद लिया था। उसमें उन्होंने मुझे तथा मेरे बाल-बच्चों को मुफ्त ले जाने का आग्रह किया। मैंने धन्यवाद सहित स्वीकार किया और दिसंबर के आरंभ में 'कुरलैंड' में अपनी धर्म-पत्नी, दो बच्चे और स्वर्गीय बहनोई के इकलौते पुत्र को लेकर दूसरी बार दक्षिण अफ्रीका रवाना हुआ। इस जहाज के साथ ही 'नादरी' नामक एक और जहाज डरबन रवाना हुआ। उसके एजेंट दादा अब्दुल्ला थे। दोनों जहाजों में मिलकर कोई आठ सौ यात्री थे। उनमें आधे से अधिक यात्री ट्रान्सवाल जाने वाले थे।