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आत्म-कथा : भाग ३

मुझे जहांतक याद है, ऐसी चिंता में चौबीस घंटे बीते होंगे। अंतको बादल बिखरे, सूर्यनारायण ने दर्शन दिये। कप्तान ने कहा-- 'अब तूफान जाता रहा।'

लोगों के चेहरों से चिंता दूर हुई, और उसके साथ ही ईश्वर भी न जाने कहां चला गया। मौत का डर दूर हुआ और उसके साथ ही फिर गान-तान, खान-पान शुरू हो गया; फिर वही माया का आवरण चढ़ गया। अब भी नमाज पढ़ी जाती, भजन होते; परंतु तूफान के अवसर पर उसमें जो गंभीरता दिखाई देती थी, वह न रही।

परंतु इस तूफान की बदौलत मैं यात्रियों में हिल-मिल गया था। यह कह सकते हैं कि मुझे तूफान का भय न था। अथवा कम-से-कम था। प्रायः इसी तरह के तूफान मैं पहले देख चुका था। जहाज में मेरा जी नहीं मिचलाता, चक्कर नहीं आते, इसलिए मुसाफिरों में मैं निर्भय होकर घूम-फिर सकता था। उन्हें आश्वासन दे सकता था और कप्तान के संदेश उन तक पहुंचाता था। यह स्नेह-गांठ मुझे बहुत उपयोगी साबित हुई।

हमने १८ या १९ दिसंबर को डरबन के बंदरपर लंगर डाला और ‘नादरी' भी उसी दिन पहुंचा। पर सच्चे तूफान का अनुभव तो अभी होना बाकी ही था।

तूफान

अठारह दिसंबर के आस-पास दोनों जहाजों ने लंगर डाला। दक्षिण अफ्रीका के बंदरों में यात्रियों की पूरी-पूरी डाक्टरी जांच होती है। यदि रास्ते में किसी को कोई छूत का रोग हो गया हो तो जहाज सूतक में--क्वारंटीन में--रखवा जाता है। हमने जब बंबई छोड़ा तब वहां प्लेग फैल रहा था। इसलिए हमें सूतक-वाधा होने का कुछ तो भय था ही। बंदर में लंगर डालने के बाद सबसे पहले जहाज पीला झंडा फहराता है। डाक्टरी जांच के बाद जब डाक्टर छुट्टी देता है तब पीला झंडा उतारता है; फिर मुसाफिरों के नाते-रिश्तेदारों को जहाज पर आने की छुट्टी मिलती है।