वे प्रतिनिधि और हामी थे, मेरे मन में बड़ा खेद उत्पन्न हुआ। उसीका विचार करता रहा था। और इसी कारण उसी के संबंध में अपने विचार मैंने इस छोटी-इसी सभा में पेश किये और श्रोताओं ने उन्हें सहन भी किया। जिस भाव से मैने उन्हें पेश किया था उसी भाव में कप्तान इत्यादि ने उन्हें ग्रहण किया था। मैं यह नहीं जानता कि उसके कारण उन्होंने अपने जीवन में कोई परिवर्तन किया था, या नहीं; पर इस भाषण के बाद कप्तान तथा दूसरे अधिकारियों के साथ पश्चिमी संस्कृति के संबंध में मेरी बहुतेरी बातें हुई। पश्चिमी संस्कृति को मैंने प्रधानत: हिंसक बताया, पूर्व की संस्कृति को अहिंसक। प्रश्नकर्ताओं ने मेरे सिद्धांत मुझीपर घटाये। शायद, बहुत कर के, कप्तान ने पूछा--“ गोरे लोग जैसी धमकियां दे रहे हैं उसी के अनुसार यदि वे आप को हानि पहुंचावें तो आप फिर अपने अहिंसा सिद्धांत का पालन किस तरह से करेंगे ?”
मैने उत्तर दिया-- “ मुझे आशा है कि उन्हें माफ कर देने की तथा उनपर मुकदमा न चलाने की हिम्मत और बुद्धि ईश्वर मुझे दे देगा। आज भी मुझे उनपर रोष नहीं है। उनके अज्ञान तथा उनकी संकुचित दृष्टिपर मुझे अफसोस होता है; पर मै यह मानता हूं कि वे शुद्ध-भाव से यह मान रहे हैं कि हम जो-कुछ कर रहे हैं वह ठीक हैं; और इसलिए मुझे उनपर रोष करने का कारण नहीं। ”
पूछने वाला हंसा। शायद उसे मेरी बात पर भरोसा न हुआ।
इस तरह हमारे दिन गुजरे और बढ़ते गये। सूतक बंद करने की मियाद अंत तक मुकरैर न हुई। इस विभाग के कर्मचारी से पूछता तो कहता-“यह बात मेरे इख्तियार के बाहर हैं। सरकार मुझे जब हुक्म देगी तब मैं उतरने दे सकता हूं।”
अंत को मुसाफिरों के और मेरे पास आखिरी चेतावनियां आई। दोनों को धमकियां दी गई थीं कि अपनी जान को खतरे में समझो। जवाब में हम दोनों ने लिखा कि नेटाल के बंदर में उतरने का हमें हक हासिल हैं; और चाहे जैसा खतरा क्यों न हो, हम अपने हकपर कायम रहना चाहते हैं।
अंत को तेईसवें दिन अर्थात् १३ जनवरी को जहाज को इजाजत मिली और मुसाफिरों को उतरने देने की आज्ञा जारी हो गई ।