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अध्यांय ४ : शांति


शब्दों में दक्षिण अफ्रीका में न कही हो । मैंने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि 'कुरलैंड' तथा 'नादरी' के मुसाफिरों को लाने में मेरा हाथ बिलकुल नहीं हैं । उनमें से बहुतेरे तो नेटाल के ही पुराने वाशिंदे थे और शेष नेटाल जाने वाले नहीं, बल्कि ट्रांसवाल जाने वाले थे । उस समय नेटाल में रोजगार मंदा था । ट्रांसवाल में काम-धंधा खूब चलता था, और आमदनी भी अच्छी होती थी । इसलिए अधिकांश हिंदुस्तानी वहीं जाना पसंद करते थे ।

इस स्पष्टीकरण का तथा आक्रमणकारियों पर मुकदमा न चलने का प्रभाव इतना जबरदस्त हुआ कि गोरों को शर्मिदा होना पड़ा । अखबारों ने मुझे निर्दोष बताया और हुल्लड़ करनेवालों को बुरा-भला कहा । इस तरह अंतको जाकर इस घटना से लाभ ही हुआ । और जो मेरा लाभ था वह हमारे कार्य का ही लाभ था । इससे हिंदुस्तानी लोगों की प्रतिष्ठा बढ़ी और मेरा रास्ता अधिक सुगम हो गया ।

तीन या चार दिन में मैं घर गया और थोड़े ही दिनों में अपना काम-काज देखने-भालन लगा । इस घटना के कारण मेरी वकालत भी चमक उठी ।

परंतु इस तरह एक ओर हिंदुस्तानियों की प्रतिष्ठा बढ़ी तो इसके साथ ही दूसरी और उनके प्रति द्वेष भी बढ़ा । लोगों को यह निश्चय हो गया कि इनमें दृढ़ता के साथ लड़ने की सामर्थ्य हैं और इस कारण उनका भय भी बढ़ गया । नेटाल की धारा-सभा में दो बिल पेश हुए, जिनसे हिंदुस्तानियों के कष्ट और बढ़ गये । एक से हिंदुस्तानी व्यापारियों के धंधे को हानि पहुंचती थी और दूसरे से हिंदुस्तानियों के जाने-आने में भारी रुकावट होती थी । सुदैव से मताधिकार की लड़ाई के समय यह फैसला हो गया था कि हिंदुस्तानियों के खिलाफ उनके हिंदुस्तानी होने की है सियत से, कोई कानून नहीं बनाया जा सकता । इसका अर्थ यह हुआ कि कानून में जाति-भेद और रंग-भेद को स्थान न मिलना चाहिए । इस कारण पूर्वोक्त दोनों बिलों की भाषा तो ऐसी रक्खी गई, जिसमें वे सब लोगों पर घटते हुए दिखाई दें; पर उनका असली हेतु था हिंदुस्तानियों के हकों को कम कर देना ।

इन बिलों ने मेरा काम बहुत बढ़ा दिया था और हिंदुस्तानियों में जाग्रति भी बहुत फैला दी थी । इन बिलों की बारीकियां इस तरह लोगों को समझा दी गई थीं कि कोई भी भारतवासी उनसे अनजान न रहने पाये और उसके अनुवाद