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अध्याय ५ : बाल-शिक्षण


मानी जानेवाली संस्थाओंके हिसाब-किताबका कोई ठिकाना नहीं है। उनके प्रबंधक ही उनके मालिक बन बैठे हैं और ऐसे बन गये हैं, मानो वे किसीके प्रति जवाबदेह ही नहीं थे। कुदरत जिस प्रकार नित्य पैदा करती और नित्य खाती है उसी प्रकार सार्वजनिक संस्थाओंका जीवन होना चाहिए। जिस संस्थाकी सहायता करनेके लिए लोग तैयार न हों उसे सार्वजनिक संस्थाकी हैसियतसे कायम रहनेका अधिकार नहीं। वार्षिक चंदा संस्थाकी लोकप्रियता और उसके संचालकोंकी ईमानदारीकी कसौटी है; और मेरा यह मत है कि प्रत्येक संस्थाको चाहिए कि वह अपनेको इस कसौटीपर कसे।

इससे किसी तरहकी गलतफहमी न होनी चाहिए। यह टीका उन संस्थाओंपर लागू नहीं होती जिन्हें मकान आदिकी जरूरत होती है। संस्थाका चालू खर्च लोगोंकी सहायतासे चलना चाहिए।

दक्षिण अफ्रीकाके सत्याग्रहके समय मेरे ये विचार दृढ़ हुए। छः सालतक यह भारी लड़ाई बिना स्थायी चंदेके चली, हालांकि उसके लिए लाखों रुपयेकी प्रावश्यकता थी। ऐसे समय मुझे याद हैं जबकि यह नहीं कह सकते थे कि कलके लिए खर्च कहांसे आवेगा? परंतु ये बातें श्रागे आने ही वाली हैं, इसलिए यहां इनका जिक्र न करूंगा।


बाल-शिक्षण

जनवरी १८९७में मैं जब डरबन उतरा तब मेरे साथ तीन बालक थे। एक मेरा १० सालका भानजा, दूसरे मेरे दो लड़के-एक नौ सालका और दूसरा पांच सालका। अब सवाल यह पेश हुआ कि इनकी पढ़ाई-लिखाईका क्या प्रबंध करें।

गोरोंकी पाठशालामें मैं अपने बच्चोंको भेज सकता था; पर वह उनकी मेहरबानीसे और बतौर छूटके। दूसरे हिंदुस्तानियोंके लड़के उनमें नहीं पढ़ सकते थे। हिंदुस्तानी बच्चोंको पढ़ानेके लिए ईसाई-मिशनके मदरसे थे। उनमें अपने बच्चोंको पढ़ानेके लिए में तैयार न था। वहां की शिक्षा-दीक्षा मुझे पसंद