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अध्याय ६ : सेवा -भाव


देकर हटा देने को जी चाहा । उसे एक कमरे में रक्खा, उसके जन्म को धोया और उसकी शुश्रूषा की ।

किंतु यह कितने दिनों तक चल सकता था ? सदा के लिए उसे घर में रखने योग्य न सुविधा मेरे पास थी, न इतनी हिम्मत ही; अतः मैंने उसे गिरमिटियों के सरकारी अस्पताल भेज दिया ।

पर इससे मुझे तृप्ति न हुई । मन में यह हुआ करता कि यदि ऐसा कोई , शुश्रषा का काम सदा मिलता रहे तो क्या अच्छा हो ? डा० बुध सेंट एडम्स मिशन के अधिकारी थे । जो कोई आता उसे वह हमेशा मुफ्त दवा देते थे । बड़े भले आदमी थे; उनका हृदय स्नेहपूर्ण था । उनकी देख-रेख में पारसी रुस्तमजी के दान से एक छोटा-सा अस्पताल खोला गया था । इसमें नर्स के तौर पर काम करने की भुझे प्रबल इच्छा हुई । एक से लेकर दो घंटे तक उसमें दवा देने का काम रहता था । दवा बनाने वाले किसी वैतनिक या स्वयंसेवक की वहां जरूरत थी । मैंने इतना समय अपने काम में से निकाल कर इस काम को करने का निश्चय किया । वकालत संबंधी मेरा काम तो इतना ही था--दफ्तर में बैठे बैठे सलाह देना, दस्तावेजों के मसविदे बनाना और झगड़े सुलझाना। मजिस्ट्रेट के इजलास में थोड़-बहुत मुकदमे रहते । उसमें से अधिकांश तो अविवादास्पद होते थे । जब ऐसे मुकदमे होते तब मि० खान उनकी पैरवी कर देते हैं वह मेरे बाद आये थे और मेरे साथ ही रहते थे । इस तरह मैं इस छोटे-से अस्पताल में काम करने लगा ।

रोज सुबह वहां जाना पड़ता था । आने-जाने और वहां काम करने में । कोई दो घंटे लग जाते थे। इस काम से मेरे मन को कुछ शांति मिली । रोगी से हाल-चाल पूछकर डाक्टर को समझाना और डाक्टर जो दवा बतावे वह तैयार करके दे देना--यह मेरा काम था । इस कार्य से मैं दुखी हिंदुस्तानियों के प्रगाढ़ संबंध आने लगा । उनमें अधिक भाग तमिल और तेलगू अथवा हिंदुस्तानी गिरमिटियों का था ।

यह अनुभव मुझे भविष्य में बड़ा उपयोगी साबित हुआ । बोझ-युद्ध के ‘समय घायलों की शुश्रषा में तथा दूसरे रोगियों की सेवा-टल में मुझे उससे बड़ी सहायता मिली । अस्तु ।

इधर बालकों की परवरिश का : प्रश्न तो मेरे सामने था ही । दक्षिण