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आत्म-कथा : भाग ३


अफ़्रीका मैं मुझे दो लड़के और हुए । उनका लालन-पालन करने की समस्या को हल करने में मुझे इस काम से अच्छी सहायता मिली । मेरा स्वतंत्र स्वभाव मुझे बहुत तपाया करता था और अब भी तपाता है । हम दंपती ने निश्चय किया कि प्रसव-कार्य शास्त्रीय पद्धति के अनुसार ही होना चाहिए । इसलिए यद्यपि डाक्टर और नर्स का तो प्रबंध था ही, फिर भी मेरे मन में यह विचार आया कि यदि डाक्टर साहब समय पर न आ पावें और दाई कहीं चली जाय तो मेरा क्या हाल होगा ? दाई तो हिंदुस्तानी ही बुलाने वाले थे । शिक्षिता दाई हिंदुस्तान में ही मुश्किल से मिलती है तो फिर दक्षिण अफ्रीका की तो बात ही क्या ? इसलिए मैंने बाल पालन का अध्ययन किया । डा० त्रिभुवन दास लिखित 'माने शिखामण' नामक पुस्तक पढ़ी । उसमें कुछ घटा-बढ़ाकर अंतिम दोनों बालकों का लालन-पालन प्रायः मेने खुद किया । हर बार दाई की सहायता तो ली; पर दो मास से अधिक नहीं । सो भी प्रधानतः धर्म पत्नी की सेवा के लिए । बच्चों को नहलाने-धुलाने का काम शुरूआत में मैं ही करता था ।

पर अंतिम बालक के जन्म के समय मेरी पूरी-पूरी आजमाइश हो गई । प्रसव-वेदना एका एक शुरू हुई। डाक्टर मौजूद नहीं था | मैं दाई को बुलाने वाला था; पर वह यदि नजदीक होती भी तो प्रसव न करा पाती । अतएव प्रसवकालीन सारा काम खुद मुझे करना पड़ा । सौभाग्य से मैंने यह विषय माने शिखामण' में अच्छी तरह पढ़ लिया था; इससे घबराया नहीं ।

मैंने देखा कि माता-पिता यदि चाहते हों कि उनके बच्चों की परवरिश अच्छी तरह हो तो दोनों को बाल-पालन आदि का मामूली ज्ञान अवश्य प्राप्त कर लेना चाहिए । इसके संबंध में जितनी चिता मैने रक्खी है उसका लाभ मुझे कदम-कदम पर दिखाई दिया है । मेरे लड़कों की तंदुरुस्ती जो आज आम-तौरपर अच्छी है, वह अच्छी नहीं रही होती, यदि मैंने बालकों के लालन-पालन का आवश्यक ज्ञान प्राप्त न किया होता और उसका पालन न किया होता । हम लोगों में यह एक बहम प्रचलित है कि पहले पांच साल तक बच्चों को शिक्षा देने की जरूरत नहीं है । परंतु सच्ची बात यह है कि बालक प्रथम पांच वर्षों में जितना सीखता है उतना बाद को हरगिज नहीं । मैं अनुभव से यह कह सकता हूं कि बालक की शिक्षा की शुरूआत तो माना के उदर से ही शुरू हो जाती है। गर्भाधान के समय की गाता