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अध्याय ८ : ब्रह्मचर्य--२


सोचकर कि ईश्वर शक्ति और सहायता देगा, मैं कूद पड़ा ।

आज २० साल के बाद उस व्रत को स्मरण करते हुए मुझे सानंदाश्चर्य होता है । संयम-पालन करने क का भाव तो मेरे मन में १९०१ से ही प्रबल था और उसका पालन में कर भी रहा था; परंतु जो स्वतंत्रता और आनंद मैं अब पाने लगा वह मुझे नहीं याद पड़ता कि १९०६ के पहले मिला हो; क्योंकि उस समय में वासना बद्ध था---कभी भी उसके अधीन हो जाने का भय रहता था; किंतु अब वासना मुझपर सवारी करने में असमर्थ हो गई ।

फिर अब मैं ब्रह्मचर्य की महिमा और अधिकाधिक समझने लगा ! यह व्रत मैने फीनिक्स में लिया था। घायलों की शुश्रूपा से छुट्टी पाकर मैं फीनिक्स गया था। वहां से मुझे तुरंत जोहान्सबर्ग जाना था। वहां जाने के एक ही महीने अंदर सत्याग्रह-संग्राम की तींव पड़ी । मानो यह ब्रह्मचर्य व्रत उसके लिए मुझे तैयार करने ही न आया हो । सत्याग्रह का खयाल मैंने पहले से ही बना रक्खा हो, सो बात नहीं । उसकी उत्पत्ति तो अनायास---अनिच्छा से--हुई । पर मैंने देखा कि उसके पहले मैने जो-जो काम किये थे--जैसे फीनिक्स जाना, जोहानसबर्ग का भारी घर-खर्च कम कर डालना और अंत को ब्रह्मचर्य को व्रत लेना---वे मानो इसकी पेश-बंदी थे ।

ब्रह्मचर्य का सोलह आने पालन का अर्थ है ब्रह्म-दर्शन । यह ज्ञान मुझे शास्त्रों द्वारा न हुआ था । यह तो मेरे सामने धीरे-धीरे अनुभव-सिद्ध होता गया । उससे संबंध रखने वाले शास्त्र-वन मैने बाद को पढे ब्रह्मचर्य में शरीर-रक्षण, बदि-रक्षण और आत्मा को रक्षण, सुब कुछ हैं--यह बात मैं व्रत के बाद दिनों दिन अधिकाधिक अनुभव करने लगा; क्योंकि अब ब्रह्मचर्य को एक घोर तपश्चर्या रहने देने के बदले रसमय बनाना था; उसी के बलपर काम चलाना था । इसलिए अब उसकी खूबियों के नित नये दर्शन मुझे होने लगे ।

पर मैं जो इस तरह उससे रस की घुटे पी रहा था, उससे कोई यह न समझे कि मैं उसकी कठिनता को अनुभव न कर रहा था। आज यद्यपि मेरै छप्पन साल पूरे हो गये हैं, फिर भी उसकी कठिनता का अनुभव तो होता ही है । यह अधिकाधिक समझता जाता हूँ कि यह असिधारा-द्रत है । अब भी निरंतर जागरूकता की आवश्यकता देखता हूँ ।