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अध्याय ८ : अह्मचर्य--२


क्या-क्या खायंगे; और फिर शिकायत करते हैं कि न तो स्वदेद्रयका संयम हो पाया और न जननेंद्रियका। उपवास से वास्तविक लाभ बहीं होता है, जहां मन भी देह-दमन में साथ देता है। इसका यह अर्थ हुआ कि मन में विषय-भोग के प्रति वैराग्य हो जाना चाहिए। विषय-भोग की जड़ तो मन में हैं। उपवासादि साधनों से मिलनेवाली सहायताएं बहुत होते हुए भी अपेक्षाकृत थोड़ी ही होती हैं। यह कहा जा सकता है कि उपवास करते हुए भी मनुष्य विषयासक्त रहता है; परंतु उपवास के बिना विषयासक्ति का समूल विनाश संभवनीय नहीं। इसलिए उपवास ब्रह्मचर्यपालन का एक अनिवार्य अंग हैं।

ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले बहुतेरे विफल हो जाते हैं। क्योंकि वे आहार-विहार तथा दृष्टि इत्यादि में अ-ब्रह्मचारी की तरह रहना चाहते हुए भी ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं। यह कोशिश गर्मी के मौसम में सदी के मौसिम का अनुभव करने जैसी समझनी चाहिए। संयमी और स्वच्छंदी के, भोगी और त्यागी के जीवन में भेद अवश्य होना चाहिए। साम्य तो सिर्फ ऊपर ही ऊपर रहता है। किंतु भेद स्पष्ट रूप से दिखाई देना चाहिए। आंख से दोनों काम लेते हैं; परंतु ब्रह्मचारी देव-दर्शन करता है, भोगी नाटक-सिनेमा में लीन रहता है। कान का उपयोग दोनों करते हैं; परंतु एक ईश्वर-भजन सुनता हैं और दूसरा विलासमय गीतों को सुनने में आनंद मानता है। जागरण दोनों करते हैं; परंतु एक तो जाग्रत अवस्था में अपने हृदय-मंदिर में विराजित राम की आराधना करता है, दूसरा नाच-रंग की धुन में सोने की याद भूल जाता है। भोजन दोनों करते हैं; परंतु एक शरीर-रूपी तीर्थ-क्षेत्र को रक्षा-मात्र के लिए शरीर को किराया देता है और दूसरा स्वाद के लिए देह में अनेक चीजों को ठुसकर उस दुर्गधित बनाता है। इस प्रकार दोनों के प्रचार-विचार में भेद रहा ही करता हैं और वह अंतर दिन-दिन बढ़ता है, घटता नहीं।

ब्रह्मचर्य का अर्थ है मन, वचन और काया से समस्त इंद्रियों का संयम। इस संयम के लिए पूर्वोक्त त्यागों की आवश्यकता है, यह बात मुझे दिन-दिन दिखाई देने लगी और आज भी दिखाई देती है। त्याग के क्षेत्र की कोई सीमा ही नहीं है। जैसी कि ब्रह्मचर्य की महिमा के नहीं है। ऐसा ब्रह्मचर्य अल्पप्रयत्न से साध्य नहीं होती। करोड़ों के लिए तो यह हमेशा एक आदर्श के रूप में ही रहेगा; क्योंकि