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अध्याय ९ : सादगी
सादगी

भोग भोगने का आरंभ तो मैंने किया; पर यह टिक न सका। टीमटाम की साधन-सामग्री मैंने जुटाई तो; परंतु उसके मोह में में नहीं फंसा था। इसलिए एक और घर-गृहस्थी बनाते ही मैंने दूसरी ओर खर्च कम करने की शुरूआत की। धुलाई का खर्च भी ज्यादा मालूम हुआ है फिर धोवी नियमित रूप से कपड़े न लाता, इस कारण दो-तीन दर्जन कमीज और इतने ही कालर से भी काम न चलता। कालर रोज बदला जाता था; कमीज रोज नहीं तो तीसरे दिन जरूर बदलनी पड़ती। इस तरह दोहरा खर्च लगता। यह मुझे व्यर्थ मालूम हुआ। इसलिए घर पर ही धोने की चीजें मंगाई। धुलाई-विद्या की पुस्तक पढ़कर धोना सीख लिया और पत्नी को भी सिखा दिया। इससे काम का कुछ बोझ तो बढ़ा; पर एक नई चीज थी, इसलिए मनोविनोद भी होता।

पहले-पहल जो कालर मैंने धोया उसे मैं कभी न भूल सकूंगा। इसमें कल्प ज्यादा था, और इल्तिरी पूरी गरम न थी। फिर कालर के जल जाने के भय से इस्तिरी ठीक-ठीक दबाई नहीं गई थी। इस कारण कालर कड़ा तो हो गया; पर उसमें से कलप झिरता रहता था।

ऐसा ही कालर लगाकर मैं अदालत में गया और वहां बैरिस्टरों के मजाक का साधन बन गया; परंतु ऐसी हंसी-दिल्लगी को सहन करने की क्षमता मुझमें उस समय भी कम न थी।

“कालर हाथ से धोने का यह पहला प्रयोग हैं, इसलिए उसमें से कलप झिर रहा है; पर मेरा इसमें कुछ हर्ज नहीं होता। फिर आप सब लोगों के इतने विनोद का कारण हुआ यह विशेष बात है।" मैंने स्पष्टीकरण किया।

“ पर धोबी क्या नहीं मिलते ?" एक मित्र ने पूछा।

"यहां धोबी का खर्च मुझे नागवार हो रहा है। कालर की कीमत बराबर धुलाई का खर्च---और फिर भी धोबी की गुलामी बरदाश्त करनी पड़ती है, सो जुदी। इसके बनिस्बत तो मैं घरपर हाथ से धो लेना ही ज्यादा पसंद करता