घर-घर जाकर प्रचार करने का काम तो तभी शुरू हो पाया, जब डरबनम प्लेगकें प्रदेश और प्रकोपका भय उत्पन्न हुआ। इसमें म्यूनिसिपैलिटीके अधिकारियोंका भाग था और उनकी सम्मति भी थी । हमारी मददसे उनका काम आसान हो गया और हिंदुस्तानियोंको कम कष्ट और असुविधा हुई; क्योंकि प्लेग इत्यादिका प्रकोप जब कभी होता है तब आम तौरपर अधिकारी लोग अधीर हो जाते हैं। और उसका उपाय करने में सीमाके आगे बढ़ जाते हैं, एवं जो लोग उनकी नजरों में अप्रिय होते हैं, उनपर इतना दबाव डाला जाता है कि वह असह्य हो जाता है । चूंकि लोगों ने खुद ही काफी इलाज करनेका आयोजन कर लिया था, इसलिए वे इस सख्ती और ज्यादतीसे बच गये ।।
इस संबंध मुझे कितने ही कडुए अनुभव भी हुए। मैंने देखा कि स्थानीय सरकारने अपने हकोंका मतालबा करने में अपने लोगोंसे में जितनी सहायता ले सुकता था, उतनी आसानीसे मैं उनसे स्वयं अपने कर्तव्योंका पालन करनेमें न ले सका । कितनी ही जगह अपमान होता, कितनी जगह विनयपूर्वक लापरवाही बताई जाती । गंदगी दूर करनेका कष्ट उठाना एक आफत मालूम होती थी और इसके लिए पैसा खर्च करना तो और भी मुश्किल पड़ता था। इससे मैंने यह पाठ और अधिक अच्छी तरह सीखा कि यदि लोगोंसे कुछ भी काम कराना हो तो हमें धीरज रखना चाहिए। सुधारक गरज तो होती है खुद सुधारकको, जिस समाजमें वह सुधार चाहता है, उससे तो उसे विरोधकी, तिरस्कारकी और जानकी भी जोखिमकी ही आशा रखनी चाहिए। सुधारक जिस बातको सुधार समझता है, समाज उसे ‘कुधार' क्यों न माने ? और यदि सुधार न भी माने तो उसकी तरफसे उदासीन क्यों न रहे ?
इस आंदोलनका परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाज में घरबार स्वच्छ रखने की आवश्यकता थोड़ी-बहुत मात्रामें मान ली गई । राज्याधिकारियों के नजदीक मेरी साख बढ़ी । वे समझे कि मैं महज शिकायतें करनेवाला अथवा हक मांगनेवाला ही नहीं हैं, बल्कि इन बातों में जितना दृढ हूं उतना ही उत्साही आंतरिक सुधारोंके लिए भी हूँ ।
परंतु समाजकी मनोवृत्तिका विकास अभी एक और दिशा में होना बाकी था। यहां भारतीयोंको अभी प्रसंगोपात्त भारतवर्षके प्रति अपने धर्मको समझना