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अध्याय १३ : देश-गमन

एक शर्त पर छुट्टी स्वीकार की। वह यह कि एक सालके अंदर लोगोको मेरी जरूरत मालूम हो तो मैं फिर दक्षिण अफ्रीका जाऊंगा । मुझे यह शर्त कठिन मालूम हुई, परंतु मैं तो प्रेम-पाशमें बंधा हुआ था।

काचे रे तांतणे मने हरजीए बांधी।
जेम ताणे तेम तेमनी रे
मने लागी कठारी प्रेमली।

मीरावाईकी यह उपमा न्यूनाधिक अंशमें मुझपर घटित होती थी। पंच भी परमेश्वर ही हैं। मित्रोंकी बातको टाल नहीं सकता था। मैंने वचन दिया । इजाजत मिली ।

इस समय मेरा निकट-संबंध प्रायः नेटालके ही साथ था। नेटालके हिंदुस्तानियोंने मुझे प्रेमामृतसे नहला डाला । स्थान-स्थानपर अभिनंदनपत्र दिये गये और हर जगहसे कीमती चीजें नजर की गई।

१८९६में जब मैं देस आया था, तब भी भेटें मिली थीं; पर इस बारकी भेटों और सभाअओंके दृश्योंसे मैं घबराया । भेटमें सोने-चांदीकी चीजें तो थी ही; पर हीरेकी चीजें भी थीं ।

इन सब चीजोंको स्वीकार करनेका मुझे क्या अधिकार हो सकता है ? यदि में इन्हें मंजूर कर लूं तो फिर अपने मनको यह कहकर कैसे मना सकता हूँ कि मैं पैसा लेकर लोगोंकी सेवा नहीं करता था ? मेरे मवक्किलोंकी कुछ रकमको छोड़कर बाकी सब चीजें मेरी लोक-सेवाके ही उपलक्ष्यमें दी गई थीं । पर मेरे मनमें तो मवक्किल और दूसरे साथियोंमें कुछ भेद न था । मुख्य-मुख्य मुवक्किल सब सार्वजनिक काममें भी सहायता देते थे ।

फिर उन भेंटोंमें एक पचास गिनीको हार कस्तूरवाईके लिए था। मगर उसे जो चीज मिली वह भी थी तो मेरी ही सेवाके उपलक्ष्यमें; अतएवं उसे पृथक् । नहीं मान सकते थे ।

जिस शामको इनमें से मुख्य-मुख्य भेटें मिलीं, वह रात मैंने एक पागलकी


प्रभुजीने मुझे कच्चेः सूतके प्रेम-धागे से बांध लिया है। ज्यों-ज्यों वह जसे तानते हैं त्यों-त्यों मैं उनको होती जाती हूं।