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आत्म-कथा : भाग ३

१३

देसमें

इस तरह मैं देसके लिए बिदा हुआ। रास्ते मॉरीशस पड़ता था। वहां जहाज वहुत देरतक ठहरा। मैं उतरा और वहांकी स्थितिका ठीक अनुभव प्राप्त कर लिया। एक रात वहांके गवर्नर सर चार्ल्र्स ब्रुसके यहां भी बिताई थी।

हिंदुस्तान पहुंचनेपर कुछ समय इधर-उधर घूमनेमें व्यतीत किया। यह १९०१ की बात है। इस साल राष्ट्रीय महासभा-कांग्रेसका अधिवेशन कलकत्ता में था। नशा एदलजी वाच्छा सभापति थे । मैं कांग्रेसमें जाना तो चाहता ही था । कांग्रेसका मुझे यह पहला अनुभव था ।

बंबईसे जिस गाड़ीमें सर फिरोजशाह चले, उसी में मैं भी रवाना हुआ। उनसे मुझे दक्षिण अफ्रीकाके विषयमें बातें करती थीं। उनके डिब्बेमें एक स्टेशनतक जानेकी मुझे आज्ञा मिली । वह खास सैलूनमें थे। उनके शाही वैभव और खर्च-वर्चसे मैं वाकिफ था । निश्चित स्टेशनपर मैं उनके डिब्बेमें गया है। उस समय उनके डिब्बेमें सर दीनशी और श्री (अब ‘सर') चिमनलाल सेतलवाड़ बैठे थे। उनके साथ राजनीतिकी बातें हो रही थीं। मुझे देख कर सर फिरोजशाह बोले----“गांधी, तुम्हारा काम पूरा पड़नेका नहीं । प्रस्ताव तो हम जैसा तुम कहोगे पास कर देंगे ; पर पहले यही देखो न, कि हमारे ही देसमें कौन से हक मिल गये हैं ? मैं मानता हूं कि जबतक अपने देसमें हमें सत्ता नहीं मिली है तबतक उपनिवेशोंमें हमारी हालत अच्छी नहीं हो सकती ।”

मैं तो सुनकर स्तंभित हो गया। सर चिमनलालने भी उन्हींकी हांमें-हां मिलाई । परंतु सर दीनशाने मेरी ओर दया-भरी दृष्टिसे देखा।

मैंने उन्हें समझानेका प्रयत्न किया । परंतु बंबईके बिना ताजुके बादशाको भला मुझ जैसी आदमी क्या समझा सकता था ? मैंने इस बातपर संतोष माना कि चलो, कांग्रेसमें प्रस्ताव तो पेश हो जायेगा ।

“प्रस्ताव बनाकर मुझे दिखाना भला, गांधी ! " सर दीनशा मुझे उत्साहित करने के लिए बोले ।