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अध्याय १३ : देसमें

मैंने उन्हें धन्यवाद दिया। दूसरे स्टेशनपर गाड़ी खड़ी होते ही मैं वहांसे खिसका और अपने डिब्बेमें आकर बैठ गया।

कलकत्ता पहुंचा। नगरवासी अध्यक्ष इत्यादि नेताअओंको धूम-धामसे स्थानपर ले गये। मैंने एक स्वयंसेवक से पूछा--"ठहरनेका प्रबंध कहां है?"

वह मुझे रिपन कालेज ले गया। वहां बहुतेरे प्रतिनिधि ठहरे हुए थे। सौभाग्यसे जिस विभागमें मैं ठहरा-था, वहीं लोकमान्य भी ठहराये गये थे। मुझे ऐसा स्मरण हैं कि वह एक दिन बाद आये थे। जहां लोकमान्य होते वहां एक छोटा-सा दरबार लगा ही रहता था। यदि मैं चितेरा होऊं तो जिस चारपाईपर वह बैठते थे उसका चित्र खींचकर दिखा दूं–उस स्थानका और उनकी बैठकका इतना स्पष्ट स्मरण मुझे है! उनसे मिलने आनेवाले असंख्य लोंगोंमें एकका ही नाम मुझे याद है-'अमृतबाजार पत्रिका के स्व॰ मोतीबाबू। इन दोनोंका कहकहा लगाना और राजकर्त्ताओंके अन्याय-संबंधी उनकी बातें कभी भुलाई नहीं जा सकतीं।

पर जरा यहांके प्रबंधकी ओर दृष्टिपात करें।

स्वयंसेवक एक-दूसरेसे लड़ पड़ते थे। जो काम जिसे सौंपा जाता वह उसे नहीं करता था; वह तुरंत दूसरेको बुलाता और दूसरा तीसरेको। बेचारा प्रतिनिधि न इधरका रहता न उधरका।

मैंने कुछ स्वयंसेवकसे मेल-मुलाकात की। दक्षिण अफ्रीकाकी कुछ बातें उनसे कीं। इससे वे कुछ शरमाये। मैंने उन्हें सेवाका मर्म समझानेकी कोशिश की। वे कुछ-कुछ समझे। परंतु सेवाका प्रेम कुकुरमुत्तेकी तरह जहां-तहां उग नहीं निकलता। उसके लिए एक तो इच्छा होनी चाहिए और फिर अभ्यास। इन भोले और भले स्वयंसेवकों में इच्छा तो बहुत थी; पर तालीम और अभ्यास कहांसे हो सकता था? कांग्रेस सालमें तीन दिन होती और फिर सो रहती। हर साल तीन दिनकी तालीमसे कितनी बातें सीखी जा सकती हैं?

जो स्वयंसेवकोंका हाल था, वहीं प्रतिनिधियोंका। उन्हें भी तीन ही दिन तालीम मिलती थी। वे अपने हाथों कुछ भी नहीं करते थे; हर बातमें हुक्मसे काम लेते थे। 'स्वयंसेवक, यह लाओ' और 'वह लाओं' यही हुक्म छूटा करते।