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अध्याय १७ : गोखलेकै साथ एक मास-१

लड़ियां और तुरें। इन सबके साथ कमरमें सोने की मुठकी तलवार लटकती रहती । किसीने कहा---ये इनके राज्याधिकारके नहीं, बल्कि गुलामीके चिह्न हैं। मैं समझता था कि ऐसे नामर्दीके आभूषण वे स्वेच्छासे पहनते होंगे । परंतु मुझे मालूम हुआ कि ऐसे समारोहमें अपने तमाम कीमती वस्त्राभूषण पहनकर आना उनके लिए लाजिमी था। मुझे पता लगा कि कितने ही राज‌ओंको तो ऐसे वस्त्राभूषणोंसे नफरत थी और ऐसे दरबारके अवसरके अलावा वे कभी उन्हें नहीं पहनते थे। मैं नहीं कह सकता कि यह बात कहांतक सच हैं। दूसरे अवसरोंपर वे चाहे पहनते हों या न पहनते हों, वाइसरायके दरबारमें हों या और कहीं, स्त्रियोचित आभूषण पहनकर उन्हें जाना पड़ता है, यही काफी दुःखदायक है । धन, सत्ता और मान मनुष्यत्वसे क्या-क्या पाप और अनर्थ नहीं कराते ?

१७

गोखले के साथ एक मास----१

पहले ही दिन गोखलेने मुझे मेहमान न समझने दिया, मुझे अपने छोटे भाईकी तरह रक्खा । मेरी तमाम जरूरतें मालूम कर लीं और उनका प्रबंध कर दिया । खुशकिस्मतीसे मेरी जरूरतें बहुत कम थीं । सब काम खुद कर लेने की आदत डाल ली थी, इसलिए से मुझे बहुत ही कम काम करना पड़ता था । स्वावलंबनकी मेरी इस आदतकी, उस समयके मेरे कपड़े-लत्तेकी सुघड़ताकी, मेरी उद्योगशीलता और नियमितताकी बड़ी गहरी छाप उन पर पड़ी और उसकी इतनी स्तुति करने लगे कि मैं परेशान हो जाता ।

मुझे यह न मालूम हुआ कि उनकी कोई बात मुझसे गुप्त थी । जो कोई बड़े आदमी उनसे मिलने आते उनका परिचय वह मुझसे कराते थे। इन परिचयोंमें जो आज सबसे प्रधानरूपसे मेरी नजरोंके सामने खड़े हो जाते हैं वह हैं डा० प्रफुल्लचंद्र राय । वह गोखलेके मकानके पास ही रहते थे और प्रायः हमेशा आया करते थे ।

" यह हैं प्रोफेसर राय, जो ८००) मासिक पाते हैं, पर अपने खर्च के लिए सिर्फ ४०) लेकर बाकी सब लोक-सेवामें लगा देते हैं। इन्होंने शादी नहीं की है, न करना ही चाहते हैं।" इन शब्दोंमें गोखलेने मुझे उनका परिचय कराया ।