आजके डा० रायमें और उस समयके प्रो० रायमें मुझे थोड़ा ही भेद दिखाई देता है । जैसे कपड़े उस समय पहनते थे आज भी लगभग वैसे ही पहनते है। हां, अब खादी आ गई है । उस समय खादी तो थी ही नहीं । स्वदेशी मिलके कपड़े होंगे । गोरखले और प्रों ० रायकी बातें सुनते हुए मैं न अघाता था; क्योंकि उनकी बातें या तो देश-हितके संबंध होतीं या होती ज्ञान-चर्चा । कितनी ही बातें दुःखद भी होती; क्योंकि उनमें नेताओंकी आलोचना भी होती थी । जिन्हें मैं महान योद्धा मानना सीखा था, वे छोटे दिखाई देने लगे ।
गोखलेकी काम करने की पद्धति से मुझे जितना आनंद हुआ उतना ही बहुत-कुछ सीखा भी । वह अपनी एक भी क्षण व्यर्थ न जाने देते थे। मैंने देखा कि उनके तमाम संबंध देश-कार्यके ही लिए होते थे। बातें भी तमाम देश-कार्यके ही निमित्त होती थीं। बातों में कहीं भी मलिनता, दंभ या असत्य न दिखाई दिया । हिंदुस्तान की गरीबी और पराधीनता उन्हें प्रतिक्षण चुभती थी । अनेक लोग उन्हें अनेक बातोंमें दिलचस्पी कराने आते । वे उन्हें एक ही उत्तर देते---" आप इस कामको कीजिए, मुझे अपना काम करने दीजिए, मुझे देशकी स्वाधीनता प्राप्त करनी है। उसके बाद मुझे दूसरी बातें सूझेंगी। अभी तो इस कामसे मुझे एक क्षण फुरसत नहीं रहती ।"
रानडेके प्रति उनका पूज्य भाव बात-बातमें टपक पड़ता था। रानडे ऐसा कहते थे', यह तो उनकी बातचीतका मानो ‘सूत-उवाच' ही था । मेरे वहां रहते हुए रानडेकी जयंती (या पुण्यतिथि, अब ठीक याद नहीं है) पड़ती थीं । ऐसा जान पड़ा, मानो गोखले सर्वदा उसको मनाते हों । उस समय मेरे अलावा उनके मित्र प्रोफेसर काथवटे तथा दूसरे एक सज्जन थे। उन्हें उन्होंने जयंती मनाने के लिए निमंत्रित किया और उस अवसरपर उन्होंने हमें रानडेके कितने ही संस्मरण कह सुनाये । रानडे, तैलंग और मांडलिकंकी तुलना की थी । ऐसा याद पड़ता है। कि तैलंगकी भाषा की स्तुति की थी । भांडलिककी सुधारकके रूप में प्रशंसा की थी। अपने मवक्किलौकी वह कितनी चिंता रखते थे, इनका एक उदाहरण दिया । एक बार गाड़ी चूक गई तो मांडलिक स्पेशल ट्रेन करके गये । यह घटना कह सुनाई । रानडेकी सर्वांगीण शक्तिका वर्णन करके बताया कि वह तत्कालीन अग्नगियों में सर्वोपरि थे । रानडे अकेले न्यायभूति न थे। वह इति-